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________________ 128 ] सकारात्मक पहिंसा शत्रु को दीजिए वैर रहे नहिं, याचक को दीजिए कीरत पावे । साधु को दीजिए मुक्ति मिले पिण, हाथ को दीधो तो एलो न जावे। लेकिन विवेक जरूर सब जगह हो। हर कार्य में विवेक की आवश्यकता है। चाहे तप करिए, जप करिए, सेवा करिए या दान दीजिए। हर जगह विवेक की जरूरत है। दान विवेकपूर्वक दिया जावे तो आपके परिग्रह का बोझ हल्का होगा। देने में आपके यह भाव हों कि इससे सत्कर्म की आराधना बढ़े तो इस शुभ भाव के कारण पाप पुण्य का उपार्जन करेंगे। इसमें पुण्य का निश्चित ही बन्ध होगा। वस्तु से ममता हटाई तो निर्जरा भी होगी। इस दान में एक शर्त है, और वह यह कि दान देते समय भावना मलिन नहीं होनी चाहिए। किसी को नीचा या ऊंचा दिखाने के लिए दान नहीं दिया जाना चाहिए। इसने पानडी में 500 लिखाये हैं तो मैं इससे बढ़कर लिखू तभी मेरी बात है, इस प्रकार सोचकर आपने एक हजार लिखा दिए। यह वस्तुतः दान का एक बड़ा दोष है। अपनी शक्ति के अनुसार दान देना तो ठीक है पर शक्ति नहीं है, फिर भी होड़ा होड़ में प्रतिस्पर्धा में उतर कर अपना नाम ऊंचा रखने के लिए दान देना, यह सही अर्थ में दान नहीं है। __ केवल उमंग आ गई और समझा कि यह सहायता करने योग्य है, कमजोर है, इसकी सहायता करनी चाहिये, यह समझ कर दान देना वस्तुतः उचित दान है। इसमें अगर अपनी सामर्थ्य से कुछ अधिक भी दे दिया तो उसका लाभ है। सहजभाव से देने में पुण्य का लाभ है, निर्जरा का लाभ है, क्योंकि इससे ममता घटती है । इसलिये निर्जरार्थ और योग्य स्थान पर दान दिया जा रहा है। इस कारण पुण्य लाभ होता है। उपयोगिता समझकर विवेक के साथ अपने कर्तव्य और शक्ति सामर्थ्य को समझकर समाज को, व्यक्ति को अथवा देश को ऊंचा उठाने के लिए, ज्ञान दर्शन और चारित्र को ऊंचा उठाने के लिए एवं धर्म की प्रभावना के लिये जो दिया जाता है, वह सही दान है। इस तरह धर्मदान, अनुकम्पा-दान, ज्ञान-दान, औषधिदान आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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