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दान का महत्त्व
आगे गीता में श्री कृष्ण ने कहा – “देशे काले च पात्रे च " उचित देश, उचित काल और उचित पात्र देखकर जो बिना किसी लगाव के, बिना किसी प्रतिलाभ अथवा चाह के दिया जाता है - 'तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्' दान वही सात्त्विक दान कहलाता है । अपने यहां राजसी, तामसी दान का तो सवाल ही नहीं है । शादी-विवाह में आपका लेनदेन होता है। एक के शादी है तो आप वहां क्या देंगे ? पूछेंगे अपने घर में कि अपने यहां शादी हुई थी, तब उन्होंने क्या दिया था ? पाटे पर 21 चढ़ाए थे और पांच अलग दिए थे। तो आप भी उसके शादी हुई तो इतना ही दोगे इतने ही चढ़ाओगे या जो भी आपकी रीति है, उसके अनुसार दोगे । यह क्या है ? यह लेने का देना है या देने का लेना है | आदान-प्रदान है । लाभ-प्रतिलाभ की प्रक्रिया है । संसार के व्यवहार में लेनदेन चलता है यह । हजारों के लेने-देने का अवसर आता है पर यह सारा प्रदान-प्रदान के रूप में होता है । यह व्यवहार दान है, प्रतिदान है। इसकी गिनती धर्मदान, पुण्यदान अथवा अनुकम्पा - दान में नहीं की जा सकती ।
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धर्म-दान किसे कहते हैं ? जहां ज्ञान की वृद्धि होती हो, वहां दान देना, स्वधर्मी भाई-बहिन दया-धर्म प्रादि करने वाले हैं, व्रत-नियम करने वाले हैं, अर्हत्-निर्ग्रन्थों द्वारा प्ररूपित दया-धर्म के अनुयायी हैं, पर उनकी स्थिति कुछ कमजोर है, उस कमजोर स्थिति से उनको बचाने के लिए उदारता के साथ सहयोग देना, यह धर्मदान है । पीड़ितों की दशा से द्रवित हो उनकी यथायोग्य सहायता करना, उन्हें दान देना, यह अनुकम्पा दान है । आत्मा के लिए अनुकम्पादान, धर्मदान और स्वधर्मी वात्सल्य अर्थात् स्वधर्मी को सहयोग देना, यह तीनों ही लाभकर हैं ।
विवेकपूर्वक दिया था दान व्यर्थ नहीं जाता
हमारे आचार्य गुरुदेव श्री शोभाचन्द्रजी म. सा. फरमाया करते थे
दीन को दीजिए होत दयावंत, मीत को दीजिए प्रीत बढ़ावे । सेवक को दीजिए काम करे बहु, सायर को दीजिए आदर पावे ॥
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