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दान का महत्व
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ज्ञान-दान के क्षेत्र मुख्य हैं। किसी दुःखी, अपाहिज, असहाय आदि को देना, यह अनुकम्पा-दान है । औषधि-दान भो एक प्रकार से अनुकम्पा दान है।
समाज के कमजोर अंग की सहायता करें
आप गृहस्थ हैं, परिग्रही हैं। अल्पारम्भी और अल्पपरिग्रही श्रावक हैं। श्रादक होने के नाते सदा इस बात का ध्यान रखना आपका कर्तव्य हो जाता है कि आपकी सम्पदा का, आपके द्रव्य का इस प्रकार से उपयोग हो, जिससे समाज का कोई अंग कमजोर न रहे। क्योंकि समाज का कोई अंग कमजोर रहेगा तो पूरा समाज लड़खड़ाता हुआ चलेगा। जैसे आज जगह-जगह अहिंसा-जीवदया का काम होता है, पशु-पक्षी की बलि-निषेध का काम हो रहा है। इस क्षेत्र में काम करने वाले तन, मन, धन से काम करते हैं। करते रहना भी चाहते हैं। पर साधन न हो, सामग्री न हो तो क्या होगा? उनका काम अटकेगा कि संस्था एवं समाज का काम अटकेगा ? काम करने वाले कमजोर होंगे कि समाज के अंग कमजोर होंगे ? किनका काम अटकेगा ? किसका अंग कमजोर होगा ? जो लोग इधर-उधर दौड़-धूप कर जीव-दया का प्रचार करते हैं, जो कई जीवों को कसाइयों के हाथों में जाने से बचा पाते हैं, जो देव-देवी के स्थानों पर होने वाली बलि से जीवों को बचाते हैं, वे लोग साधनों के अभाव में काम नहीं कर सकेंगे। शरीर का योग तो देने वाले दे रहे हैं, पर जहां अर्थ-सहयोग की आवश्यकता है, वहां वे स्वयं तो आर्थिक दृष्टि से कमजोर होने के कारण द्रव्य का सहयोग दे नहीं सकते। जिनके पास द्रव्य-सहयोग देने की क्षमता तो है, पर वे शरीर का योग देने में असमर्थ हैं, ऐसी स्थिति में यदि वे द्रव्य का सहयोग भी न दें तो काम बनेगा ? नहीं बनेगा।
दान तीन तरह का है। आज सर्व सेवा संघ ने एक और प्रकार के दान का भी प्रचलन किया है। समय-दान को भी उन्होंने दान की श्रेणी में गिन लिया है। प्राचार्य विनोबा भावे ने कहा है कि अर्थ-दान देने वाले भी मिल जाते हैं, पर समय का दान देने वाले, समय का भोग देने वाले नहीं मिलते। उनकी दृष्टि में 'जीवनदानी' की एक
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