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सकारात्मक पहिंसा
समाज का आप थोड़ा निरीक्षण करेंगे तो मालूम होगा कि किसी गृहस्थ के घर में कोई विवाह का प्रसंग आया, परिवार में नये प्राणी का जन्म हुआ अथवा और कोई खास खुशी का प्रसंग उपस्थित हुआ तो इस प्रकार के प्रांणे-टांणे के अवसरों पर वह गृहस्थ, चाहे उसकी स्थिति अच्छी हो या कमजोर हो, कुछ नहीं देखकर, कुछ देना चाहिये, इसलिए देता है । इसी प्रकार दान का प्रसंग उपस्थित होने पर कर्त्तव्य की भावना से देने का नाम ही दान है ।
दान के बढ़ते क्षेत्र
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आज के युग में दान के क्षेत्र बढ़ गये हैं, जिनकी पहले आवश्यकता नहीं समझी जाती थी । आज स्वधर्मी भाई को दान के संविभाग की, विधवाओं को दान के संविभाग की, बच्चों को शिक्षणदान एवं शिक्षण उपकरण दान के संविभाग की, शिक्षण संस्थाओं के दान के संविभाग की आवश्यकताएँ रहती हैं। पहले के जमाने में ये नहीं थीं । ये नये विभाग बन गये हैं । पहले शिक्षण संस्था का काम तो घर में माताएँ कर लेती थीं। पहले जिस तरह से समाज का संगठन था, संगठन के उस ढांचे में स्वधर्मी भाईयों और विधवाओं को देने का कुछ अवसर ही नहीं रहता था | अर्थव्यवस्था भी ऐसी ही थी । कुछ समाज व्यवस्था भी पहले ऐसी ही थी । आज घर की माताएं एक तो शिक्षण के वैसे ढाँचे में ढली हुई नहीं होतीं, फिर शिक्षण का रूप भी कुछ भिन्न हो गया है । इसके अतिरिक्त आज घर में माताओं को इधर-उधर के अन्य अनेक काम मिल गये हैं, जो पहले नहीं थे । इसलिये श्राज की बदलती हुई परिस्थिति में गृहस्थ- समाज को उसके अनुरूप व्यवस्था भी करनी है । स्थानकवासी समाज, या यों कहें कि सारा ही जैन समाज ऐसा समाज है, जहाँ कई अंशों में धर्म के नाम पर, साधु के नाम पर दान देने सबंधी कोई खर्च नहीं है या खर्च है तो क्या है ? आपको दान किसमें देना होता है ? कहीं कल्पसूत्र बंच रहा है, भगवान् के सपनों की बात हो रही है तो उन अवसरों पर बोलियां लगती हैं और उनमें कुछ देना होता है । ऐसा देना मूर्तिपूजक समाज में है, स्थानकवासी समाज में नहीं है । स्थानकवासियों के यहां अधिक से अधिक अनुकम्पा दान, दया दान या
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