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________________ दान का महत्त्व [ 123 वही दान है, जो गीता में भी बताया गया है-दातव्यमिति यद्दानम् । मैंने द्रव्य पाया है। मेरे पास साधन हैं। खाने, पीने, पहनने से ज्यादा चीज मेरे पास है और दूसरा जरूरतमंद है। इस क्षेत्र में मेरे द्रव्य के उपयोग की आवश्यकता है, अपेक्षा है, इसलिए मुझे देना चाहिए। मेरे पास ज्यादा है और इसके पास नहीं है, इसलिए मुझे देना चाहिए। इसमें क्या बात आयी ? 'देना चाहिए' की भावना आई। इस विचार के पीछे मन को भार है क्या ? नहीं, और देना पड़ेगा, इसके पीछे ? इसके पीछे मन को भार है। देना चाहिए इसके पीछे मन को भार नहीं है, इसलिए इस दान को महापुरुषों ने धर्म के अंग के रूप में बतलाया है। इस बात को बराबर समझकर जो अपने द्रव्य का वितरण करते रहेंगे, उनके सामने राजकीय क्षेत्र से, सामाजिक क्षेत्र से तथा अन्य किसी भी क्षेत्र से किसी भी प्रकार की जोरी करने का मौका नहीं आएगा। अमुक भाई दुःखी है, भूखा है, अभाव में है, अमुक समाज का अंग कमजोर है, अमुक संस्था कमजोर है, समाज का अमुक अंग सहायता की अपेक्षा रखता है, यह समझकर जो भाई हंसते-हंसते अपने द्रव्य पर से अपना ममत्व हटाकर दान करता है, वहां पर किसी को जोर-जबर्दस्ती करने का, अंगुली उठाने का या सताने का कोई अवसर सपने में भी नहीं आयेगा। वान को अहसान नहीं कर्त्तव्य समझिए प्राचीन महापुरुषों ने और धर्माचार्यों ने दान के बाबत इस चीज को गहराई से सोचा और उन्होंने कहा कि यह दान किसी पर अहसान जताने वाला भी न रहे। किसी संस्था को देना, किसी उपयुक्त पात्र को दिया जाना अथवा किसी.पंडित को दिया जाना, यह उन पर अहसान नहीं है। फिर क्या है ? कर्तव्य है। दान को कर्त्तव्य के रूप में समझा जाना चाहिए। जब तक कर्तव्य रूप में प्रवृत्ति नहीं होगी, तब तक दान की उदारता नहीं रहेगी। उसमें मिठास नहीं रहेगा, और जब तक किसी में मिठास पैदा नहीं होता, तब तक उसमें आनन्द नहीं प्राता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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