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सकारात्कम अहिंसा
'त्याग' से पृथक्करण किया गया है। दान शब्द सापेक्ष है और त्याग शब्द निरपेक्ष । दान और त्याग का भेद समझने के लिए पहले दान की परिभाषा समझ लीजिए । दान की परिभाषा है
“स्वस्वत्वभावपरिहारपूर्वकं परस्वत्वस्वीकरणं दानम् ।"
अर्थात् - वस्तु पर से अपना स्वामित्व छोड़कर पराई सत्ता उत्पन्न करना, उसे दूसरे को समर्पित करना, इसका नाम दान है । जब तक किसी वस्तु पर दाता अपनी नेश्राय (स्वामित्व ) की भावना कायम रखे, तब तक वह दान नहीं होता । प्राय: दान का मतलब केवल इतना ही समझा जाता है कि 'देना' । देकर उसने उस वस्तु पर से अपना ममत्व विसर्जित किया हो अथवा न किया हो, इसका विचार नहीं है । पर वास्तव में दान का जब आप सही अर्थ सोचेंगे तो आपको मालूम होगा कि दान तब तक दान नहीं है जब तक कि उसके ऊपर से अपना ममभाव विसर्जित न हो । दाता को अपनी वस्तु किसी दूसरे को दे देने के पश्चात् उस पर से ममभाव का विसर्जन करना है । ममभाव विसर्जित करके मेरेपन की भावना छोड़कर अर्थात् मेरी नेश्राय की यह चीज है, इस तरह के ममभाव को छोड़कर अपनी उस वस्तु को योग्य पात्र को दे देना, इसका नाम दान है ।
सात्त्विक दान
श्रीकृष्ण ने गीता में जो दान की परिभाषा की है, वह इस प्रकार
है -
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च, तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥
श्रीकृष्ण से पूछा गया कि वस्तुतः सात्त्विक दान किसे कहना चाहिए ? उन्होंने कहा - " दातव्यमिति यद्दानं" ।
'दान देना चाहिए' करके अगर आपने दान नहीं दिया, लेकिन 'देना पड़ेगा' यह समझकर दिया, तो यह दान वस्तुतः प्रशंसनीय दान की कोटि में आने वाला नहीं है । प्रशंसनीय कक्षा में आने वाला दान
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