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दान का महत्त्व
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दान गृहस्थ-धर्म का प्रमुख प्रग एवं आभूषण
स्थानांग सूत्र में जिस प्रकार श्रावक के तीनों मनोरथों का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार साधु के तीन मनोरथों का भी उल्लेख है। गृहस्थ का जीवन व्रत-प्रधान नहीं, शील-प्रधान और दान-प्रधान है। साधु का जीवन संयम-प्रधान एवं तप-प्रधान है। गृहस्थ के जीवन की शील और दान ये विशेषतायें हैं। गृहस्थ यदि शीलवान् नहीं है तो उसके जीवन की शोभा नहीं है। जिस प्रकार शीलवान् होना गृहस्थ जीवन का एक आवश्यक अंग है, उसी प्रकार अपनी संचित सम्पदा में से उचित क्षेत्र में दान देना, अपनी सम्पदा का विनिमय करना और परिग्रह का सत्पात्र में व्यय करना यह भी गृहस्थ जीवन का एक प्रमुख अंग, सुन्दर भूषण और मुख्य कर्तव्य है। दान और त्याग में अन्तर
त्याग और दान में बड़ा अन्तर है। त्याग करते समय त्याग करने वाला व्यक्ति यह नहीं सोचता कि उसकी उस वस्तु का क्या उपयोग होगा, उसकी उस वस्तु को कौन, किस प्रकार काम में लेगा। साधूता ग्रहण करते समय हममें से किसी व्यक्ति ने इस बात की फिक्र नहीं की कि मेरी इस सम्पत्ति का, मेरे इस मकान का कौन उपयोग करेगा। मेरी पूँजी का कौन, किस प्रकार उपयोग करेगा--इस बात की बिना किसी प्रकार की चिन्ता किये निरपेक्ष भाव से अपना सब प्रकार का सम्बन्ध छोड़कर अपनी वस्तु से अलग हो जाना, इसका नाम त्याग है। दान में इस प्रकार की निरपेक्षता नहीं है। दान के पीछे अपने हित की और सामने वाले के हित की, प्रतिलाभ की भावना होती है। इसी कारण दान के लिए शास्त्रीय भाषा में प्रायः “पडिलाभेमाणे विहरइ" इस प्रकार का प्रयोग आता है। शास्त्रों में जहां कहीं गृहस्थ द्वारा दान दिये जाने का वर्णन आता है तो वहां दान शब्द का नहीं, अपितु प्रतिलाभ शब्द का ही प्रयोग आता है। __'दान देते हुए विचरूं', की बजाय 'प्रतिलाभता हुआ विचरूँ'- इस प्रकार का प्रयोग अर्थात् दान के स्थान पर 'प्रतिलाभ' शब्द का प्रयोग किया गया है। दान के लिए प्रतिलाभ शब्द का प्रयोग कर 'दान' का
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