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सकारात्मक अहिंसा
यह नियम है कि कोई भी पूर्ण हिंसक नहीं हो सकता । अहिंसा की कमी ही हिंसा है, हिंसा का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । अतः सर्दी-गर्मी की तरह हिंसा-अहिंसा भी सापेक्ष है । यही कारण है कि पाप के साथ पुण्य का बन्ध सदैव होता रहता है और साथ ही कर्मों की नैसर्गिक (अकाम) निर्जरा भी सदैव होती रहती है । इस प्रकार छद्मस्थ जीव (सरागी) की प्रत्येक क्रिया पाप, पुण्य, बन्ध और निर्जरायुक्त हो होती है । पुण्य, कषाय की मंदता या प्रात्म-विशुद्धि का द्योतक है। कषाय की कमी या मंदता रूप आत्म-विशुद्धि धर्म है। अतः प्रत्येक क्रिया के साथ धर्म भी सदैव होता रहता है। वस्तुतः धर्म-अधर्म, सर्दी-गर्मी की तरह सापेक्ष है विरोधी नहीं। धर्म की कमी अधर्म है। अधर्म का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। प्रारणी की प्रत्येक क्रिया प्रांशिक हिंसा और प्रांशिक अहिंसायुक्त होती है । अतः जितने अंशों में वह अहिंसक है उतने अंशों में धर्म है और जितने अंशों में हिंसक है उतना अधर्म है। वस्तुतः पानी पिलाने आदि कार्यों में जो हिंसा होती है वह अहिंसा की तुलना में नगण्य है । अतः यह मान्यता कि जहां हिंसा है वहां अहिंसा नहीं हो सकती यह बात तथ्यहीन है। इसी प्रकार अशुभ-योग और शुभ-योग भी सापेक्ष हैं, विरोधी नहीं। दूसरे शब्दों में पुण्य-पाप भी सापेक्ष हैं । यही कारण है कि हर क्रिया में पाप-पुण्य तथा निर्जरा-बन्ध होता रहता है।
यही नहीं कर्मों का उत्कर्षण, अपकर्षण ये दोनों भी सभी प्राणियों में सदा होते रहते हैं। तात्पर्य यह है कि पुण्य-पाप, धर्मअधर्म, गुण-दोष सापेक्ष है। इनमें से एक की कमी दूसरे की वृद्धि है और ये सभी संसारी प्राणियों में न्यूनाधिक रूप से सदैव विद्यमान रहते हैं। 12. आपत्ति ___ जीव-जीव सभी समान हैं, अतः किसी भी जीव की हत्या करने में समान पाप लगता है। इसलिए किसी भी एक जीव की सहायता करने के लिए किसी अन्य जीव की हत्या करना घोर पाप है। * इसकी पुष्टि हेतु आपत्ति 12 का निराकरण द्रष्टव्य है।
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