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सकारात्मक अहिंसा पर आपत्तियां और उनका निराकरण
निराकरण
यदि उपर्युक्त तर्क को मान्य किया जाय तो यह मानना होगा कि एक मनुष्य की हत्या करने और एक लट या चींटी व जलकाय के जीव की हत्या की हिंसा का पाप समान होगा । ऐसी स्थिति में किसी जीव की अन्य किसी प्रकार की सहायता करने की बात तो दूर रही, हम उसे जल भी नहीं पिला सकते, क्योंकि उसे जल पिलाने में असंख्यात मनुष्यों की हत्या के बराबर हिंसा होगी । यदि ऐसा माना जाय तो मनुष्य की हत्या का दण्ड फांसी दिया जाता है तो लट, कीट, मक्खी, मच्छर के मारने वाले को भी फांसी का दण्ड ही देना होगा । जो व्यक्ति पानी पीता है, उसमें असंख्यात प्रप्काय जीवों की हिंसा होती है, अतः उसे श्रसंख्यात मनुष्यों की हत्या के रूप में असंख्यात बार फांसी लगनी चाहिए जो नितान्त अव्यावहारिक, सैद्धान्तिक, मानवता, अन्याय, क्रूरता की बात होगी ।
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दूसरी बात यह है कि मनुष्य की हत्या करने वाले को नरक का अधिकारी माना जाता है उसी प्रकार पानी पीने वालों अर्थात् अप्काय के असंख्यात जीवों की हत्या करने वाले हर जीव को एक बार पानी पीने पर भी नरक में जाना पड़ेगा ।
सत्य तो यह है कि जो जीव जितना विकसित है उसकी हत्या में उतना ही अधिक पाप है । यही कारण है कि एक सामान्य व्यक्ति को मारने की अपेक्षा एक राजा, एक राजनेता, एक साधु, एक ब्राह्मण, एक राजा की हत्या में अधिक पाप माना गया है तथा सागर के अप्काय के समस्त जीवों की हत्या से एक लट (द्वीन्द्रिय) की हत्या में अधिक पाप कहा गया है, क्योंकि वह लट उनसे अनन्तगुरगा पुण्यात्मा है । इसलिए मनुष्य को जल पिलाने में जितना पुण्य होता है, जलकाय के जीवों की हिंसा का पाप उसके समक्ष नगण्य है । इसीलिए ठारणांग सूत्र के नवें ठाणे में नौ प्रकार का पुण्य कहा है । उसमें पानी पिलाने को भी पुण्य कहा है, पाप नहीं ।
यह नियम है कि जो जीव जितने अधिक विकसित होते हैं, उतने ही अधिक संवेदनशील होते हैं, अतः उन्हें मारने में उतनी ही अधिक क्रूरता होती है, अर्थात् हिंसा होती है ।
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