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सकारात्मक अहिंसा पर आपत्तियां और उनका निराकरण
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दो प्रकार से हो रहा है । प्रतिसमय ज्ञानावरणीय, मोहनीय श्रादि कर्मों की पाप प्रकृतियों का एवं प्रगुरुलघु, निर्माण, तैजस, कार्मण शरीर श्रादि पुण्य - प्रकृतियों का बन्ध व उदय निरन्तर हो रहा है । अर्थात् प्राणी की प्रत्येक प्रवृत्ति से पुण्य और पाप ये दोनों फल निरन्तर हो रहे हैं । साथ ही उदय में आये कर्मों का क्षय व नवीन कर्मों का बन्ध ये दोनों फल भी सदैव हो रहे हैं । कषाय में कमी रूप विशुद्ध भाव (पुण्य) से पूर्व संचित कर्मों का क्षय होकर उनकी स्थिति में कमी होती ही है और जितना कषाय उदयरूप है उससे कर्मबन्ध भी होता ही है । श्रावक के संयमासंयम गुणस्थानक होता है अर्थात् व्रती श्रावक के संयम और असंयम दोनों युगपत् होते हैं ।
दशवें गुणस्थानक तक साधुनों के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि पाप - प्रकृतियों का कर्मबन्ध निरन्तर होता है तथा श्वास लेने से साधक के वायुकाय के जीवों की हिंसा भी निरन्तर हो रही है । अतः एक क्रिया के दो फल न होने के सिद्धान्त के अनुसार दशवें गुरणस्थान तक पाप होने से दूसरे फल पुण्य, धर्म, श्रहिंसा, संयम, कर्मक्षय आदि नहीं हो सकते । जबकि जैनागम में साधु के अहिंसा, संयम, पुण्य, धर्म, कर्मक्षय होना माना है । अतः एक क्रिया के दो फल नहीं होते हैं, यह सिद्धान्त, कर्म - सिद्धान्त व श्रागम के विरुद्ध है |
इसी प्रकार यह तर्क देना कि किसी भूखे-प्यासे को भोजन कराना पानी पिलाना हिंसा है। हिंसा होने से यह अहिंसा नहीं हो सकती । यह तर्क व मान्यता स्याद्वाद व विज्ञान के विरुद्ध है । कारण कि जैसे सर्दी-गर्मी, परस्पर विरोधी गुरण कहे जाते हैं, परन्तु वास्तव में ये विरोधी न होकर सापेक्ष हैं. ।
इसी प्रकार प्राणी की प्रत्येक क्रिया हिंसा - प्रहिंसायुक्त होती है । उसके श्वास लेने, खाने-पीने, हिलने चलने आदि क्रियाओं में वायुकाय व अन्य असंख्य जीवों की हिंसा निरन्तर होती रहती है । कोई जीव एक क्षरण मात्र भी हिंसा रहित नहीं है तथा वह जगत् के शेष अनन्त जीवों की हिंसा नहीं कर रहा है, अतः श्रहिंसक भी है ।
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