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सकारात्मक अहिंसा
वीतराग केवलज्ञानी के दान, लाभ श्रादि को अनन्त कहा है । यह कथन भावात्मक है । परन्तु इनका प्रवृत्तिपरक क्रियात्मक रूप शरीर, वस्तु, परिस्थिति आदि पर निर्भर करता है, अतः सीमित होता है । यह क्रियात्मक रूप, अनुकम्पा, करुणा आदि भावों को पुष्ट करता है, राग को गलाता है । अतः प्रवृत्ति साधन रूप है साध्य रूप नहीं । क्योंकि साध्य असीम व अनन्त होता है जबकि प्रवृत्ति का अन्त होता है अतः प्रवृत्ति साध्य न होकर साधन है ।
दया, दान, करुणा के क्रियात्मक रूप साधन को साध्य मान लेने पर इन क्रियाओं के प्रति कर्तृत्व-भाव व फल की आशा रूप राग पैदा होता है, जिससे इन सद्प्रवृत्तियों की पूर्ति में बाधक बनने वाले के प्रति द्व ेष एवं सहायक बनने वाले के प्रति राग होता है जो साधक को लोकातीत व भावातीत नहीं होने देता । श्रतः सद्प्रवृत्तियां राग-द्वेष की उत्पत्ति का कारण न बन जाय, साधक को इसके लिए सदैव सजग रहना श्रावश्यक है । तात्पर्य यह है कि दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियां पुण्य मुक्ति में बाधक नहीं हैं, बाधक है इनके साथ रहा हुआ राग-द्वेष आदि दोष व पाप ।
11. श्रापत्ति - किसी एक क्रिया के दो फल नहीं हो सकते, इसे सिद्धान्त मान कर कुछ लोग सेवा, परोपकार, दया, अनुकम्पा, वात्सल्य आदि सद्प्रवृत्ति रूप सकारात्मक हिंसा पर यह आपत्ति करते है कि प्यासे प्राणी को पानी पिलाने, भूखे को भोजन कराने, रोगी की चिकित्सा करने आदि सेवा कार्यों में जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय आदि के प्रसंख्य - अनन्त जीवों की हिंसा होती है । अतः ये सेवा कार्य हिंसा हैं, पाप हैं, अधर्म हैं, असंयम हैं, कर्मबन्ध के हेतु हैं और एक कार्य के हिंसा और अहिंसा ये दो विरोधी फल न होने से ये सेवा कार्य पुण्य, धर्म, संयम व कर्मक्षय के हेतु नहीं हो सकते ।
निराकरण - यहां सर्व प्रथम यह विचार करना है कि एक क्रिया के दो फल नहीं होते, इस सिद्धान्त में कितना तथ्य है ?
प्राणी मात्र कोई न कोई क्रिया निरन्तर करता रहता है अतः निरन्तर कर्म का बन्ध होता रहता है । यह कर्मबन्ध पाप व पुण्य
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