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सकारात्मक अहिंसा पर आपत्तियां और उनका निराकरण
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क्षय के साथ पुण्य - प्रकृत्तियों की स्थिति का अपवर्त्तन व क्षय स्वतः होता ही रहता है । मुक्ति प्राप्ति के समय और इससे पहले भी पापकर्मों की स्थिति के क्षय के साथ पुण्य कर्मों की स्थिति का क्षय स्वतः होता जाता है । स्थिति का क्षय ही कर्म का क्षय है । पुण्य कर्मों की स्थिति के क्षय के लिए साधक को किसी प्रकार का पुरुषार्थ व प्रयत्न नहीं करना होता है । अतः दया, दान, करुणा, वात्सल्य भाव आदि सद्प्रवृत्तियों को मुक्ति में बाधक मानना जैनागम व कर्म सिद्धान्त के विरुद्ध है ।
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यह सर्वमान्य तथ्य है, आगम-सम्मत सिद्धान्त है कि राग-द्वेष रूप कषाय ही कर्म का बीज है, कर्म के बन्ध का कारण है । रागद्वेष कषाय मोहनीयकर्म के ही रूप हैं मोहनीय कर्म की कोई भी प्रकृति पुण्यरूप नहीं है । सभी प्रकृतियां पापरूप ही हैं । देव, गुरु धर्म के श्रवण-मनन आदि से जो प्रसन्नता होती है वह राग नहीं, प्रमोद है, गुणीजनों को देखकर हृदय में जो प्रेम उमड़ता है वह राग नहीं, मैत्री भाव व वात्सल्य है ।
दुःखियों को देखकर हृदय द्रवित होता है वह भी राग नहीं, करुणाभाव है । उनके दुःख को दूर करने के लिए उनकी सहायता, सेवा करना अनुकम्पा है । मैत्री, प्रमोद, करुणा, अनुकम्पा, वात्सल्यभाव जीव का स्वभाव है इसीलिए जैनागमों में इन्हें संवर में ग्रहण किया गया है । संवर से, शुभभाव से कर्म क्षीण होते हैं, कर्म बंधते नहीं हैं । कर्म-बन्ध का कारण मैत्री, प्रमोद, करुणा, अनुकम्पा श्रादि भाव व दया, दान, सेवा, परोपकार आदि सद्प्रवृत्तियां नहीं हैं, प्रत्युत इनके साथ रहा हुश्रा कषाय-भाव है। मैत्री, प्रमोद, करुरणा आदि भावों दया, दान, सेवा आदि सद्प्रवृत्तियों को कर्म-बन्ध का व संसार भ्रमण का कारण मानना, स्वभाव को कर्मबन्ध व संसारपरिभ्रमण का कारण मानना है जो जैनागम के विरुद्ध हैं तथा घोर मिथ्यात्व रूप है । सारांश यह है कि हिंसा, झूठ श्रादि पाप-प्रवृत्तियां व असंयम ही संसार भ्रमण के कारण हैं, दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियां नहीं ।
पहले कह श्राये हैं कि अनुकम्पा, वात्सल्य, मैत्री, मृदुता आदि भाव स्वभाव हैं, अतः धर्म हैं । स्वभाव असीम व अनन्त होता है ।
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