________________
110 ]
सकारात्मक अहिंसा की ओर बढ़ने से रुका रहा। मुक्ति का बाधक कारण पुण्य-कर्मों का न त्यागना ही है।
निराकरण-जैनागम के अनुसार पाप उसे कहा जाता है जिससे प्रात्मा का पतन हो, आत्मा अपवित्र हो, आत्मा को असाता का वेदन हो और पुण्य उसे कहा जाता हैं जिससे प्रात्मा का उत्थान हो, आत्मा पवित्र हो, प्रात्मा को साता का वेदन हो, दुःख उपशांत हो । जिससे आत्मा पवित्र हो, प्रात्मा का उत्थान हो, उसे मुक्ति में बाधक मानना जैनागमों का घोर अपमान व अनादर है। जैन-धर्म व कर्म-सिद्धान्तानुसार पुण्य की वृद्धि से पाप-कर्मों का क्षय होता है । संयम, त्याग, तप रूप शुद्धोपयोग व अनुकम्पा से पुण्य का उपार्जन नियम से होता है । यदि पुण्य के उपार्जन को मुक्ति में बाधक माना जाय तो संयम, त्याग, तप रूप शुद्धोपयोग व अनुकम्पा को हेय मानना होगा। पुण्यकर्म से मुक्ति पाने के लिए संयम, त्याग, तप रूप शुद्धोपयोग को त्यागना होगा जबकि संयम, त्याग, तप, शुद्धोपयोग को ही जैनागम में मुक्ति का साधन कहा है ।
अतः पुण्य मुक्ति में बाधक है यह मान्यता जैनागम और कर्मसिद्धान्त से विपरीत है तथा घोर मिथ्यात्व की पोषक है। कर्मसिद्धान्तानुसार जब साधक क्षपक-श्रेणी की साधना कर केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त करता है उसी समय पुण्य के अनुभाग का उत्कृष्ट बन्ध होता है जो मुक्ति-प्राप्ति के पूर्व अन्तिम क्षण तक उत्कृष्ट ही रहता है, उसमें अंश मात्र भी कमी नहीं होती है कारण कि संयम, त्याग, तप, शुद्धोपयोग एवं वीतराग-भाव से तो पुण्य के अनुभाग का उपार्जन होता है, क्षय होता ही नहीं है। यह नियम है कि पुण्यप्रकृतियों के अनुभाग का क्षय संक्लेश भाव रूप पाप-प्रवृत्ति से ही होता है और वीतराग के संक्लेश भाव है ही नहीं । अतः वीतराग के पुण्य-प्रकृतियों के अनुभाग का क्षय नहीं होता है । रहा पुण्य-प्रकृत्तियों की स्थिति का क्षय, सो पुण्य-प्रकृत्तियों का स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व अघातीकर्म की । पाप-प्रकृत्तियों के स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व से कभी अधिक नहीं होता है तथा अघातीकर्म की पाप-प्रकृत्तियों की स्थिति के अपवर्तन व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org