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सकारात्मक अहिंसा पर आपत्तियां और उनका निराकरण
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बुद्धि द्वारा भोग-प्राप्ति का व विषय-कषाय का चिन्तन करना विभाव रूप विचार है जो विकार व संकल्प का द्योतक है। इस संकल्प की पूर्ति न होने पर विकल्प पैदा होते हैं। ऐसा संकल्पविकल्प प्रा ध्यान है और कर्म-बन्ध का कारण होने से त्याज्य है।
बुद्धि द्वारा अपने हित व कल्याण का विचार या चिन्तन करना 'ज्ञान' है संकल्प नहीं, और अपने हित व कल्याण के लिए दया, दान आदि सद्प्रवृत्ति रूप प्राचरण करना चारित्र है । ज्ञानचारित्र से कर्म की निर्जरा होती है, बन्ध नहीं। इन्हें संकल्प-विकल्प मानना अज्ञान है।
दया, दान, करुणा, अनुकम्पा, वात्सल्य आदि भाव-स्वभाव रूप हैं। यह नियम है कि स्वभाव में संकल्प नहीं होता, विभाव में ही संकल्प-विकल्प होता है जो प्रार्तध्यान रौद्रध्यान का द्योतक है। मैत्री, प्रमोद, करुणा आदि भाव तथा अनित्य, अशरण आदि अनुप्रेक्षाएं चिन्तन व तदनुरूप आचरण, संयम व धर्मध्यान है जो कर्मक्षय का हेतु है।
तात्पर्य यह है कि दया, दान, मैत्री आदि सद्प्रवृत्तियां व सद्गुण स्वभाव रूप होने से व इनमें विषय-कषाय रूप भोग की भावना न होने से ये संकल्प व विकल्परूप नहीं होते। प्रत्युत ये विवेकमय विचाररूप ज्ञान तथा चारित्ररूप धर्म होते हैं जो मुक्ति-प्राप्ति में सहायक है, बाधक नहीं। संकल्प में राग, स्वार्थपरता व भोगेच्छा होती है और सद्प्रवृत्तियों में मैत्री-वात्सल्य-भाव, स्वार्थ-त्याग व सर्वहितकारी भावना होती है। उसे राग-द्वेष रूप संकल्प-विकल्प मानना व बन्ध का कारण मानना भूल है।
____ 10. आपत्ति-वर्तमान में एक युक्ति यह भी दी जाती है कि जीव संयमयापन करके तथा दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियां करके अनन्त बार नवग्रैवेयक देवलोक में चला गया, परन्तु मुक्ति में नहीं गया। इसका कारण यह है कि जैसे हिंसा, झूठ आदि पाप-प्रवृत्तियों को मुक्ति-प्राप्ति में बाधक समझ कर त्याग किया उसी प्रकार सद्प्रवृत्तियों को, पुण्यकार्यों को, पुण्यकर्मों को मुक्ति में बाधक नहीं माना । इसी मिथ्यात्व के कारण वह जीव नवग्रैवेयक से आगे मुक्ति
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