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सकारात्मक अहिंसा
अच्छा समझना और दूसरों के लिए इन्हीं कार्यों को बुरा समझना न तो युक्तियुक्त है, न उपयुक्त है, न उचित है, न सत्य है, न सिद्धान्त सम्मत है, मात्र भ्रमजाल है, भ्रान्ति है।
__ जो लोग किसी जीव को मरने या कष्ट से बचाने में पाप मानते हैं उनके लिए तो इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि बचाने का फल बचाये गये जीव का बचना है, जीव का यह बचना उनके सिद्धान्तानुसार पाप का फल है। अत: उनके सिद्धान्तानुसार स्वयं का बचा रहना, जीवित रहना भी पाप का ही फल मानना होगा। इससे अधिक विडम्बना क्या हो सकती हैं ? किसी मरते हुए जीव को बचाने को या किसी दु:खी के दुःख दूर करने को, दुःखी की सहायता या सेवा करने को पाप या त्याज्य कहना मानवता, व्यावहारिकता, बुद्धि, युक्ति प्रादि सभी से घोर विरुद्ध बात है। ऐसे सिद्धान्त को विचार की कोटि में स्थान देना ही विचार-जगत् को अपमानित करना है। ऐसे सिद्धान्त पर बात या विचार करना वैसा ही लज्जास्पद है जैसा कि किसी की दी हुई गाली को पुनः अपने मुह से दोहरा कर अपने वचन व मुंह को गंदा करना है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जो जीव को बचाने में, सहायता करने में पाप मानते हैं उनके स्वयं के बचे रहने का कोई औचित्य नहीं हैं । बचे रहने का अधिकार या औचित्य उन्हीं का है जो किसी जीव को बचाने को उचित मानते हैं ।
9. अापत्ति-दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियों में दूसरों की रक्षा करने का संकल्प होता है और संकल्प की पूर्ति न होने पर विकल्प होता है । संकल्प-विकल्प कर्म-बन्धन का कारण है। कर्म-बन्ध बुरा व त्याज्य होता है।
. निराकरण-उपयुक्त मान्यता निराधार हैं क्योंकि वह मान्यता संकल्प और विचार या कामना व भावना का भेद न समझने का परिणाम है। संकल्प उसे कहा जाता है जिससे अपने भोग के सुख पाने रूप फल-प्राप्ति की, स्वार्थपूर्ति की कामना या इच्छा हो और बुद्धि के द्वारा चिन्तन करना विचार या भाव है । विचार या भाव दो प्रकार का है-(1) विभाव-रूप और (2) स्वभाव-रूप ।
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