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________________ सकारात्मक अहिंसा पर आपत्तियां और उनका निराकरण [ 107 परन्तु दयावान् व्यक्ति उसे भी ऐसा करने से रोकता है । अतः दयावान् व्यक्ति के हृदय में मारने वाले व मरने वाले प्राणियों के प्रति राग-द्वेष नहीं होता है क्योंकि प्रथम तो वह दोनों से अपना विषय कषायजन्य सुख नहीं चाहता है, दूसरा उसकी दोनों के प्रति हितकारी मैत्री-भावना होती है। इस प्रकार हिंसक को हिंसा करने से बचाने में न तो जिसकी हिंसा की जा रही है उसी का अहित है और न जो हिंसा कर रहा है उसका अहित हैं और न बचाने वाले का अहित है प्रत्युत सभी का हित है, सभी का भला है, लाभ है, अहित या हानि किसी की भी लेशमात्र भी नहीं है। किसी जीव को हिंसा, झूठ, चोरी, राग, द्वेष, विषय, कषाय प्रादि दुष्प्रवृत्तियों से, पापों से बचाने में किसी का भी अहित नहीं है। जिसमें सभी का हित है, वह अहिंसा है। उसे हिंसा मानना भयंकर भूल है। जिनकी यह मान्यता है कि किसी जीव पर दया, उसकी रक्षा करने, मरने या कष्ट से बचाने में राग-द्वेष होता है अतः यह पाप है, धर्म नहीं है, हिंसा है, अहिंसा नहीं है । ऐसी मान्यता वाले व्यक्ति को कोई मरने, पीड़ा से, कष्ट से, दुःख से बचावे, रक्षा व सहायता करे तो वह उसके इस कार्य को भला समझता है या बुरा ? यदि बुरा या पाप समझता है तो उसे उसकी सहायता नहीं लेना चाहिये । और उससे यह प्रार्थना या निवेदन करना चाहिये कि कृपा करके हमें बचाकर आप पाप के भागी मत बनिये। परन्तु, कहीं पर भी किसी को भी ऐसा करते या कहते नहीं देखा या सुना गया है । सभी अपने को मृत्यु से, दुःख से, पीड़ा से, कष्ट से बचाने, रक्षा करने वाले को एवं उसके इस कार्य को अच्छा व भला ही समझकर स्वीकार करते हैं, निषेध नहीं करते हैं। इससे किसी भी जीव को मृत्यु, दुःख, पीड़ा आदि से बचाना, रक्षा करना, उसकी सहायता (दान) करना स्वतः अच्छा व भला सिद्ध हो जाता है। क्योंकि सत्य सिद्धांत सनातन, सार्वजनीन, सार्वकालिक, सार्वत्रिक-सार्वदेशिक होता है । अतः वह सब पर सदा-सर्वदा सर्वत्र समान रूप से लागू होता है । उसमें अपने-पराये का भेद नहीं होता है। जिसमें अपने-पराये का भेद-भाव है वहां स्वार्थपरता है--सत्यता नहीं। अपने को मृत्यु कष्ट आदि दुःखों से बचाने, रक्षा करने, सहायता करने के कारण को तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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