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सकारात्मक अहिंसा नाम का एक पंथ था जो इसी मान्यता को स्वीकार करता था। इस पंथ के अनुयायी अनेक व असंख्य जीवों की हिंसा से बचने के लिए एक हाथी को मारकर लम्बे समय तक उसे खाते रहते थे और अपने को अहिंसक मानते थे तथा इस मत या सिद्धान्त को नहीं मानने वालों को हिंसक मानते थे।
वास्तविकता तो यह है कि जीव तो अजर-अमर-अविनाशी है अतः जीव का विनाश होता ही नहीं। विनाश होता है-कान, नयन, नाक आदि इन्द्रियों व तन-मन-वचन आदि प्राण शक्तियों का । इसीलिए जैनागमों में हिंसा के स्थान पर प्राणातिपात अर्थात् प्रारणों का हनन करना शब्द आया है और अणुव्रत या महाव्रत की प्रतिज्ञा भी प्रारणातिपात विरमण की ही ली जाती है जो सार्थक व उचित ही है । यह नियम है कि जिस जीव में जितनी अधिक प्राणशक्ति है वह उतना ही अधिक विकसित प्राणी है । उसके हनन में उतना ही अधिक प्राणातिपात (हिंसा) है। एकेन्द्रिय जीव वनस्पति आदि से द्वीन्द्रिय जीव लट, केंचुत्रा आदि की प्राण-शक्ति (संवेदनशीलता) अनन्त-गुणी है इसीलिए इन्हें एकेन्द्रिय से अनन्तगुणा पुण्यवान माना है । अतः इनकी हिंसा में एकेन्द्रिय जीव के प्राणातिपात से अनन्तगुण प्राणातिपात होता है-हिंसा होती है, पाप होता है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में यही आशय प्रकट किया गया है, यथा-'एग इसिं हणमाणे अणंते जीवे हरगइ' अर्थात एक ऋषि को मारता हा अनन्त जीवों को मारता है । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय चींटी आदि, त्रीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय मक्खी, मच्छर आदि और चतुरिन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पशु-पक्षी-मनुष्य आदि क्रमशः अनन्त-अनन्त गुणी अधिक प्राण-शक्ति वाले हैं, पुण्यात्मा हैं। अतः उनके हनन में क्रमशः अनन्त-अनन्त गुणा अधिक प्राणातिपात होता है, अनन्त-अनन्त गुणी अधिक हिंसा होती है या पाप लगता है । अतः सब जीवों के मारने में समान पाप लगता है, समान हिंसा है, यह मानना भयंकर भूल है।
इसी प्रकार एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक ऊपर दिए गए क्रम में जीवों की रक्षा करने, दया करने में क्रमशः अनन्त-अनन्त गुणा धर्म व पुण्य है। अतः पशु-पक्षी, मनुष्य प्रादि पंचेन्द्रिय प्राणियों को
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