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________________ सकारात्मक अहिंसा पर आपत्तियां और उनका निराकरण [ 105 अन्न-जल देकर भूख प्यास से मरने से बचाने, इनकी सेवा करने में अनन्त गुणा धर्म व पुण्य है और इनके मारने में अनन्त गुणा पाप व अधर्म है। इनकी रक्षा या सेवा में पाप या हिंसा मानना धर्म को पाप मानना है जो घोर मिथ्यात्व है । तात्पर्य यह है कि सब जीवों के मारने में समान पाप या हिंसा नहीं है । बल्कि जो प्राणी जितना अधिक प्राणवान् है उसके हनन में उतना ही अधिक प्राणातिपात है, हिंसा है, पाप है, आत्म-पतन है और उसकी रक्षा में, दया में सहायता में उतना ही अधिक धर्म है, पुण्य है, आत्मा का उत्थान है । 7. अापत्ति-कोई जीव किसी दूसरे जीव को कष्ट दे रहा है या मार रहा है तो ऐसी स्थिति में जिसे कष्ट दिया जा रहा हैमारा जा रहा है उसे बचाने से जो जीव अपने सुख के लिए उसे कष्ट दे रहा है, मार रहा है उस जीव को प्राघात लगता है, दुःख होता है । अतः यह हिंसा है। निराकरण-इस सम्बन्ध में विचारने से ऐसा लगता है कि किसी जीव को कष्ट होना हिंसा नहीं है। जैसे एक डॉक्टर पेट का ऑपरेशन करने के लिए किसी रोगी का पेट छुरी से काटता है और एक डाक धन लटने के लिए किसी व्यक्ति के पेट में छुरा घोंपता है । बाहरी दृष्टि से दोनों घटनायें एक सी हैं, दोनों का काम एकसा है, परन्तु प्रान्तरिक दृष्टि में बहुत अन्तर है। डॉक्टर द्वारा छुरे से रोगी का पेट चीरना और उससे रोगी को कष्ट होना या मर जाना, हिंसा नहीं कहा जा सकता। कारण कि डॉक्टर की भावना रोगी के हित में होती है और डाकू द्वारा व्यक्ति का पेट चीरना हिंसा है क्योंकि डाक की भावना व्यक्ति का हित करने की नहीं, अहित करने की है। किसी प्राणी के हित के लिए किया गया कार्य मैत्री है, सेवा है, दया व अहिंसा है अतः पेट में छुरा घोंपने का डॉक्टर का कार्य हितकारक होने से अहिंसा व दया है तथा डाकू का कार्य अहित का हेतु होने से हिंसा व पाप है। 8. प्रापत्ति-कोई व्यक्ति किसी जीव को मार रहा है उससे उस मरने वाले जीव को बचाया जाता है तो जिस जीव को बचाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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