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सकारात्मक अहिंसा पर आपत्तियां और उनका निराकरण [ 103 समझा जाय । अतः सद्प्रवृत्तियों से पाप का अनुमोदन होता है, यह मानना भूल है।
6. आपत्ति-सकारात्मक अहिंसा के विरोध में एक युक्ति यह भी दी जाती है कि जीव "जीव" है, सभी जीव समान हैं । अतः किसी भी जीव को मारा जाय, उसका पाप समान ही लगेगा, भिन्न नहीं । अतः एक जीव को बचाने के लिए असंख्यात-अनन्त निरपराध जीवों की हिंसा करना कहां तक उचित व न्यायसंगत है ?
निराकरण-इस सम्बन्ध में यह कहना होगा कि "सब जीवों को या किसी भी जीव को मारने में समान पाप लगता है, यह मान्यता भूल भरी है । कारण कि पथ्वीकाय के एक कण में, जलकाय की एक बूद में असंख्यात जीव होते हैं और वनस्पतिकाय व निगोद में सूई के अग्र भाग जितने स्थान में असंख्यात् व अनन्त जीव होते हैं। अतः हमारे व वीतराग के प्रत्येक श्वास में असंखपात वायुकाय के जीवों की हत्या हो रही है, जल की एक घट में, वनस्पति के उपयोग में असंख्यात अनन्त जीवों का प्राणान्त हो रहा है । इन जीवों में से प्रत्येक जीव की हिंसा को मनुष्य की हत्या के समान माना जाय तो हम प्रति क्षण असंख्यात मनुष्यों की हत्या का पाप कर रहे हैं जो विद्यमान समस्त मनुष्यों की संख्या से असंख्यात गुण हैं । उपर्युक्त मान्यता के अनुसार कोई इन सब मनुष्यों की हत्या भी कर दे तो यह हत्या का पाप एक घूट के जलकाय के जीवों की हत्या से कम ही होगा। महाभारत जैसे हजारों-लाखों युद्धों की हत्या का पाप भी एक श्वास लेने में मरे जीवों से कम ही होगा। इस मान्यता के फलस्वरूप अपने स्वार्थ के लिए हजारों मनुष्यों की हत्या करने में भी संकोच नहीं होगा कारण कि उसका पाप एक घट जल के पाप से कम ही होगा। अतः यह मान्यता भयंकर हत्या को प्रोत्साहन देने वाली तथा अनाचार-अत्याचार की पोषक है ।
अतः उपर्युक्त मान्यताओं को मानना आगम, कर्म-सिद्धान्त व्यवहार, संविधान, न्याय-नीति-नियम व युक्ति आदि से विरुद्ध ही है व अहिंसा का उपहास ही है। अत: यह मान्यता सर्वथा प्राधारहीन और कपोल-कल्पित ही है। प्राचीनकाल में "हस्तितापस"
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