________________
102 ]
सकारात्मक अहिंसा साम्राज्य हो जायगा और किसी भी प्राणी का जीवित रहना दूभर हो जायगा । यहां तक कि किसी से स्वयं अपनी रक्षा, सहायता व सेवा करने की अपेक्षा करना भी पाप को बढ़ावा देने का ही कारण होगा जो घोर अमानवता, पशुता, दानवता है। कितने आश्चर्य की बात है कि पाप कोई दूसरा ही करे और उसका फल दूसरे व्यक्ति को बिना पाप किये ही मिले अर्थात् करे कोई भरे कोई, हत्या करे कोई और फांसी दूसरे को मिले। यह कर्म-सिद्धान्त व आगम के विपरीत तो है ही, साथ ही साथ विधि व्यवहार-विरुद्ध भी है। अतः सर्वथा त्याज्य है।
किसी भी जीव को बचाये जाने का फल उस बचाये गए जीव का बचना है अर्थात् जीवित रहना है अतः जो लोग किसी जीव को बचाने में एकान्त पाप मानते हैं उनके लिए तो इतना ही कहना काफी होगा कि उनके सिद्धान्तानुसार किसी भी जीव का या उनका स्वयं बचा रहना, जीवित रहना भी पाप का ही फल है । अतः जो किसी जीव को बचाने-उसकी रक्षा करने में पाप मानते हैं, उन्हे स्वयं को बचे रहने का, जीवित रहने का अधिकार ही नहीं है। किसी मरते हुए जीव को भोजन, जल आदि देकर बचाने को या उसके दुःख को दूर करने को, सेवा करने व सहायता पहुँचाने को पाप या त्याज्य मानना मानवता, व्यावहारिकता, बुद्धिमत्ता आदि सभी पक्षों से घोर विरुद्ध है, जिसका मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है।
उपर्युक्त मान्यता इसलिए भी तथ्यहीन है कि जीवों की रक्षा करने वाले की लेशमात्र भी यह भावना नहीं होती कि कोई जीव बचकर हिंसा, झूठ, चोरी, शोषण प्रादि दुष्प्रवृत्तियां करे व राग-द्वेष, कषाय, मोह का सेवन करे क्योंकि वह तो स्वयं ही इन दुष्प्रवृत्तियों व पापों को बुरा समझता है तथा इनके त्यागने में अपना हित मानता है। यह नियम है कि जो जिसे बुरा समझता है उसकी भावना सदैव यही रहती है कि वह बचने वाला प्राणी या व्यक्ति भी इन दुष्प्रवृत्तियों व बुराइयों से बचकर अपना हित करे । पाप का अनुमोदन तो तब होता है जब पाप-कर्म या क्रिया को अच्छा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org