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________________ सकारात्मक अहिंसा पर आपत्तियां और उनका निराकरण [ 101 जीवों की मत्यु या हिंसा होने पर भी उनका हिंसा-विरमण रूप अहिंसा महाव्रत तीन करण व तीन योग से माना गया है। उनके हिंसा के त्याग का व्रत भी तीन करण, तीन योग से होता है और स्थावर जीवों के मरने पर भी उनका अहिंसा महाव्रत खण्डित नहीं होता है क्योंकि साधु व वीतरागी के द्वारा जीवों की हिंसा होती है, पर वे हिंसा करते नहीं हैं। उनका लक्ष्य तो प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ सर्व जीवों की रक्षा व हित का ही रहता है, किसी भी जीव की हिंसा व अहित करने का लक्ष्य नहीं होता है। अतः सद्प्रवृत्तियों में हिंसा का पाप नहीं लगता व कर्मबंध नहीं होता है । 5. आपत्ति-दान, दया आदि के द्वारा जिस जीव की रक्षा की जाती है वह जीव जीवित रहकर भविष्य में संसार में पाप प्रवृत्ति करता है। इससे रक्षा करने वाला अनुमोदन-रूप पाप का भागीदार होता है । पाप त्याज्य होता है। अतः दान, दया आदि से जीवों की रक्षा करना पाप है व त्याज्य है । निराकरण-उपयुक्त युक्ति सर्वथा तथ्यहीन है। कारण कि रक्षा करने वाले का यह भाव कदापि नहीं होता कि वह जीव बचकर पाप करे । यदि किसी जीव के बचने पर उनके द्वारा आगे होने वाले पाप का कारण उसके रक्षक को माना जाय तो वीतराग को छोड़कर शेष सब जीव पाप करते हैं। उनके माता-पिता, भाई-बहिन मित्र, परिजन आदि भी बचकर पाप करेंगे, यहां तक कि साधु भी दसवें गुणस्थान तक पाप कर्मों का बंध करता है अर्थात् पाप करता है। अतः अपने माता-पिता आदि परिजनों की सेवा करना व साधु को दान आदि देना उन्हें भूख-प्यास आदि से बचाना, पाप बंध का ही कारण होगा, अधर्म होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो कोई किसी को भी बचाए तो उस बचाने वाले को पाप हो लगेगा । इस प्रकार दया, दान द्वारा किसी की भी सेवा करना, उसे भूख-प्यास से बचाना पाप का कारण होने से त्याज्य ही होगा। इस मान्यता के अनुसार तो दया, दान आदि धर्म का ही लोप हो जायगा। चारों ओर सर्वत्र घोर हिंसा व निर्दयता का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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