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सकारात्मक अहिंसा
होगा वहां धर्म होगा ही। क्योंकि पुण्य कहा ही उसे जाता है जो
आत्मा को पवित्र करे और वही धर्म है। उसे अधर्म कदापि नहीं कहा जा सकता। इसीलिए जैनागम में दया, दान, करुणा, सेवा (वैयावृत्य), वात्सल्य प्रादि सद्प्रवृत्तियों को धर्म कहा है।
दान, दया आदि समस्त सद्प्रवृत्तियां सद्गुण हैं । सद्गुण स्वभाव होता है, विभाव नहीं। स्वभाव धर्म होता है अधर्म नहीं। यदि स्वभाव को ही धर्म न माना जाय तो धर्म का अभाव हो जायगा।
4. आपत्ति-दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियों में एकेन्द्रिय व हलते-चलते जीवों की हिंसा होती है। हिंसा पाप है, कर्म-बंध का कारण है । अतः सद्प्रवृत्तियां साधक के लिए त्याज्य हैं ।
निराकरण-पुण्य या धर्मरूप सद्प्रवृत्तियों से एकेन्द्रिय जीवों की जो मृत्यु होती है वह अनायास होती है । वह किसी भी प्रकार के आयास या प्रयासपूर्वक की नहीं जाती है । हिंसा आदि पाप-बंध का कारण करण और योग ये दोनों हैं। इन दोनों के मिलने से पापबंध होता है, अकेले करण या अकेले योग से नहीं । अत: जिस प्रवृत्ति में करण और योग होते हैं वह बंध का कारण होती है। यदि बिना करण (करना-कराना, अनुमोदन ) के हो बंध माना जाय तो वीतराग के भी श्वास लेने, चलने-फिरने, बैठने-उठने प्रादि प्रवृत्तियों व क्रियाओं में वायुकाय आदि एकेन्द्रिय की व त्रसकाय की हिंसा होती रहती है अत: उससे उनके भी कर्म-बंध होने चाहिए, परन्तु उनके बंध नहीं होता क्योंकि जब तक किसी भी क्रिया के साथ कर्तृत्वभाव रूप करना, कराना व अनुमोदन रूप कारण न हो तब तक बंध सम्भव नहीं है।
__ अभिप्राय यह है कि दान, दया, सेवा प्रादि सद्प्रवृत्तियों में हिंसा करने, कराने व अनुमोदन का लेशमात्र भी भाव नहीं होता है। अतः वह पाप रूप व कर्म-बंध का करण नहीं है । इसीलिए साधु द्वारा खाने-पीने, चलने-फिरने, श्वास लेने आदि क्रियाओं में त्रस-स्थावर
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