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सकारात्मक अहिंसा पर आपत्तियां और उनका निराकरण [ 99 करुणा, वात्सल्यरूप सद्प्रवृत्तियों से पाप-कर्मों का नियम से क्षय होता है व निर्जरा होती है। पाप के क्षय से 'मुक्ति होती है । अतः दया, दान, वात्सल्य आदि सदप्रवत्तियां मुक्ति की साधन व सहायक हैं। इन्हें मुक्ति में बाधक मानना जैन-धर्म का अपालाप करना है।
यदि पुण्य को किसी भी रूप में कोई हेय माने तो उसके लिए उसका पुण्य-क्षय करना आवश्यक होगा और पुण्य का क्षय संवरनिर्जरा रूप साधना से तो होता नहीं। उल्टा उनसे पुण्य का उत्कर्ष ही होता है। अतः पुण्य-क्षय करने का एक मात्र उपाय पाप-प्रवृत्ति रह जाता है । पाप-प्रवृत्ति को पुण्य के क्षय के उपाय के रूप में ग्रहण करना मुक्ति में बाधक ही होगा।
यही नहीं पुण्य पूर्णरूप से प्रघाती कर्म है अर्थात् इससे जीवके किसी भी निज गुण का लेशमात्र भी धात नहीं होता । जिससे जीव के किसी भी गुण को किंचित् भी हानि नहीं पहुंचती, उसे मुक्ति में बाधक मानना न युक्तियुक्त है और न समुचित ही।
3. आपत्ति सद्प्रवृत्तियां पुण्यरूप होती हैं । पुण्य धर्म नहीं होता और धर्म के बिना मुक्ति नहीं मिलती।
निराकरण-सद्प्रवृत्तियां पुण्यरूप भी होती हैं और धर्म रूप भी । यही नहीं पुण्य और धर्म सहचर हैं, अतः जहां धर्म होगा वहां पुण्य होगा ही। पुण्यहीन कभी धर्मात्मा नहीं हो सकता । धर्म के साथ पुण्य उसी प्रकार जुड़ा हुआ है जैसे काया के साथ छाया । धर्म और पुण्य को अलग करके नहीं देखा जा सकता । कारण कि सद्प्रवृत्तियां रूप सद्गुणों के दो पहलू हैं-(1) भावात्मक और (2) क्रियात्मक । सद्प्रवृत्तियों का भावात्मक पक्ष है अपने राग-द्वेष, विषय-कषायजन्य सुख का त्याग करना । त्यांग में ही धर्म है अतः सद्प्रवृत्तियों का भावात्मक रूप धर्म है। सद्गुणों का क्रियात्मकरूप है दया, दान, सेवा, वात्सल्य आदि की प्रवृत्ति करना । इसी क्रियात्मक रूप को पुण्य कहा जाता है। ये दोनों पक्ष एक सिक्के के दो समान पहलू हैं जिन्हें एक-दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। अत: जहाँ धर्म होगा वहाँ पुण्य होगा ही और जहां पुण्य
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