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सकारात्मक अहिंसा पर आपत्तियां और उनका निराकरण
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से या शब्द सुनाई पड़ने मात्र से कर्म-बंध नहीं होता है । कर्म - बंध होता है क्रिया के साथ रहे हुए संकल्प-विकल्प से, कर्तृत्व- भोक्तृत्व भाव से, राग-द्वेष- मोह रूप विषय - कषाय से । कहा भी है
सुख-दुःख दोनों बसत हैं, ज्ञानी के घट मांहि । गिरि सर दीसे मुकुर में, भार भीजबो नाहिं ||
अर्थात् जैसे दर्पण में पर्वत और तालाब दोनों दिखाई देते हैं परन्तु, दर्पण पर्वत से भारी नहीं होता और तालाब के जल से गीला नहीं होता । इसी प्रकार ज्ञानीजन के हृदय में सुख-दुःख रूप साता या साता का वेदन ( अनुभव) होता है, परन्तु उन्हें उनके कारण से कर्म-बंध नहीं होता है । आशय यह है कि क्रिया बंध का कारण नहीं है । बंध का कारण उसके साथ रहा हुआ कषाय है । अतः सद्प्रवृत्तियां त्याज्य या हेय नहीं हैं, कषाय हेय है, कषाय कर्मबंध का कारण है ।
2. प्रापत्ति - सद्प्रवृत्तियां पुण्यरूप होती हैं और उनसे कर्म - बंध होता है । कर्मबंध की हेतु होने के कारण दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियां मुक्ति में बाधक हैं ।
निराकरण - पुण्य को कर्म-बंध का कारण मानना भूल है, कारण कि कर्म की सत्ता तभी सम्भव है जब स्थिति-बंध हो, स्थितिबंध के अभाव में कर्म-बंध सम्भव नहीं है । स्थितिबंध कषाय से होता है । कषाय कभी भी पुण्यरूप नहीं होता, सदैव पापरूप होता है । प्रत: पुण्य मुक्ति प्राप्ति में किसी भी रूप में बाधक नहीं है, प्रत्युत् मुक्ति-प्राप्ति में सहायक है । पुण्य के प्रकर्ष या उत्कर्ष से ही सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है । पुण्यरूप विशुद्धि-लब्धि के बिना सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता । सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र सम्भव नहीं हैं और इन तीनों के अभाव में मुक्ति हो ही नहीं सकती । श्रतः पुण्य मुक्ति प्राप्ति में साक्षात् व परम्परा कारण है ।
यह नियम है कि पुण्य का क्षय किसी भी साधना से नहीं होता । साधना के दो मुख्य अंग हैं -संवर और निर्जरा । इन दोनों
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