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________________ सकारात्मक अहिंसा पर आपत्तियाँ और उनका निराकरण ___ 1. आपत्ति-प्रवृत्तिरूप योग व क्रिया 'कर्म' की जनक है फिर वह दान, दया, परोपकार, सेवा व रक्षा करने रूप सद्प्रवृत्ति ही क्यों न हो, समस्त सद्प्रवृत्तियां कर्मबंध की ही हेतु हैं। कर्मबंध त्याज्य है, हेय है उपादेय नहीं। निराकरण-यह ठीक है कि प्रवृत्ति क्रियारूप होती है, परन्तु सभी क्रियाएं सकर्मक नहीं होती हैं, बहुत-सी क्रियायें अकर्मक ही हैं। कर्म-बंध करने वाली क्रिया वह है जिस क्रिया के साथ कषाय व विषय-सुख रूप फल की प्राशा व इच्छा लगी हो, कर्ता-भाव व भोक्ता-भाव हो, परन्तु जो क्रिया कर्मोदय से या निसर्गतः स्वतः होती है, जिसके साथ कर्ता व भोक्ता-भाव नहीं होता, जो केवल द्रष्टा व साक्षी-भाव से होती है वह क्रिया बंध का कारण नहीं होती । जैसे अघातीकर्म की उदयरूप क्रियायें कर्म-बंध करने वाली नहीं होतीं। इसीलिए उन्हें अघाती कहा है, देश घाती भी नहीं कहा । उदाहरणार्थ-वीतराग के निरन्तर मन-वचन-काया से क्रिया होती रहती है, परन्तु उनके कर्म-बंध नहीं होता, भले ही वे श्वास लें, चलें, प्रवचन दें। यही नहीं, वीतराग केवली द्वारा दया, दान, वात्सल्य प्रादि प्रवृत्तियां या क्रियायें भव्य जीवों के निमित्त से स्वतः, सहज, स्वाभाविक रूप से होती रहती हैं। केवली अनन्त दानी, जगत-वत्सल हैं परंतु उनकी दया, दान आदि क्रियायें उसी प्रकार होती हैं जैसे ढोलक हाथ की थपकी के निमित्त से बोलने लगती है, उसमें करने का संकल्प नहीं होता। संकल्पपूर्वक की गई क्रिया कर्तृत्वभाव की द्योतक होती है तथा कर्म-बंध में हेतु होती है। आंख खोलते ही जगत् के अच्छे-बुरे सब पदार्थ दिखाई देते हैं, कान में इधर-उधर से शब्द सुनाई पड़ते रहते हैं, परन्तु वस्तुओं के दिखाई देने मात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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