________________
मार्दव
[
95
उन दुःखियों का दुःख हमारे हृदय में समा जायगा और सुख-भोग की कामना मिट जायगी, हृदय शुद्ध हो जायगा ।
हृदय पर-पीड़ा से भरा रहे तो उसमें सुख-भोग की वासना उदित नहीं होती। दूसरों के दुःखों को अपने हृदय में धारण करने का उपाय यह है कि किसी दुःखी को देखकर उसकी स्थिति में अपने को रखकर विचारें कि जिस दुःख में यह जीव है, उसमें मैं होता तो मुझे कैसा लगता ? अपने को उसी दुःखी की अवस्था में खड़ा करते ही अपने भीतर उसका चित्र अंकित हो जायगा, हृदय दुःख से द्रवित होने लगेगा, वासनाएं विगलित होने लगेंगी। परन्तु, जो मोह के प्रभाव से दुःखी होता है उसके भीतर दुःख दूर न होने पर दुर्बलता आती है । वह उद्विग्न और निराश होता है, घबराता है, लेकिन जो अपना पराया भेद किए बिना सर्वात्मभाव से पर-पीड़ा को धारण करता है, अपनाता है, उस व्यक्ति में दुर्बलता नहीं आती है, नीरसता नहीं पाती है, घबराहट या बैचेनी नहीं होती है, उसमें दुःखी व्यक्ति को सहायता करने का सामर्थ्य पाता है। प्रकृति भी उस सेवक की सहायता करती है, समाज भी बहुत कुछ देता है, उसे चारों ओर से सहयोग मिलता है, सम्पूर्ण जगत् उसकी सहायता करने के लिए लालायित रहता है और सहयोग देकर अपने को धन्य समझता है। तात्पर्य यह है कि हृदय परपीड़ा के दुःख से भरा रहे, जिससे स्वार्थपरता व सुख की दासता से प्राई 'हृदय को जड़ता' द्रवीभूत होकर गल जाय, चिन्मयता प्रकट हो जाय। यह मुक्ति-प्राप्ति का सहज व सुलभ उपाय है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org