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सकारात्मक अहिंसा
जो व्यक्ति विषय - सुख में प्रासक्त है, उसके हृदय में जड़ता आ जाती है । वह दूसरे के दुःख का अनुभव नहीं कर पाता, उसकी संवेदनशीलता मर जाती है । उसका हृदय कठोर हो जाता है |
जो एयर कंडीशनयुक्त उच्च अट्टालिकाओं में गर्म कपड़े पहनकर सोते हैं, उन्हें वस्त्रहीन व्यक्ति सर्दी में ठिठुर कर कैसे मरते हैं यह समझ में नहीं या सकता । सच तो यह है कि सुख की प्रासक्ति सुख के भोगी को हृदयहीन बना देती है, पत्थर हृदय बना देती है जो कि विकास में बहुत बड़ी बाधा है । दुःख कितना कष्टदायक होता है, यह दुःख की घड़ी में ही अनुभव होता है । कारण कि सुख का भोगी दुःखियों को देखते हुए भी सुख भोगता रहता है, किन्तु वह अपना हृदय कठोर किये बिना कोई सुख नहीं भोग सकता । सुख के भोगी का हृदय इतना कठोर हो जाता है कि हृदय में से उदारता निकल जाती है व मानवता लुप्त हो जाती है । इस दृष्टि से सुख का भोग करना मानव-जीवन के पतन का हेतु है । परन्तु जो दुःख से परिचित है, दुःख के अभाव से प्रभावित है वह प्राप्त सामग्री का स्वयं भोग न करके पीड़ित व्यक्तियों की पीड़ा दूर करने में उसका उपयोग करता है । उसके हृदय में प्रेम का मधुर रस उमड़ता है । माधुर्य ईश्वरीयगुण है जो हृदय की मृदुता में ही निवास करता है ।
तन,
जिसका हृदय नवनीत के समान कोमल व मृदु नहीं है वहां धर्म नहीं है और वह धर्मात्मा नहीं है । जिससे पर दुःख सहा न जाय वही धर्मात्मा है । दूसरों का दुःख दूर करने के लिए अपने सामर्थ्य का उपयोग करना ही कर्त्तव्य परायणता है । जिस किसी को भी धन, बुद्धि, बल, योग्यता श्रादि की जो भी सामग्री व सामर्थ्य मिली है वह मृत्यु के उस पार तो जा नहीं सकती । अतः वह व्यक्ति उस प्राप्त सामग्री व सामर्थ्य का उपयोग यदि सेवा में नहीं करेगा तो विषयभोग के सुख में करेगा । जिससे नैसर्गिक विधान के अनुसार न चाहते हुए भी विवश होकर दुःख भोगना ही पड़ेगा । इस प्रकार प्राप्त सामग्री तथा सामर्थ्य का एक ही सही उपयोग रह जाता है और वह है उसे सेवा में लगाना । श्रतः हमें जहाँजहाँ दुःख दिखाई दे वहां-वहां प्राप्त सामर्थ्य को बांटते जायें। इससे
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