________________
मार्दव
जैन-धर्म में संवर के भेदों में दस धर्म कहे गये हैं- क्षमा, आर्जव आदि। इनमें से एक धर्म है मार्दव या मृदुता । मार्दवधर्म, मद, मान या अहंकार के त्याग से ही संभव है । जैसा कि कहा गया है "कुलरूवजादिबुद्धिसु तवसुदसीलेसु गारवं किंचि जो रवि कुब्वदि समरणो मादव-धम्मं हवे तस्स" ( भगवती आराधना 49 / 154 )
जो मनस्वी पुरुष, कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शील आदि के विषय में थोड़ा भी मद नहीं करता है उसके मार्दवधर्म होता है । प्रथवा "मृर्दाभावोमार्दवम्" अर्थात् मृदुभाव का होना मार्दव है, या यों कहें कि जहां हृदय में कोमलता है वहां मार्दव है ।
जहां मद (अहंकार) है, दूसरों से अपने को उच्च समझने का भाव है वहां मृदुता नहीं, जड़ता है। जहां जड़ता है, वहां कठोरता है, वहां हृदयहीनता है । ऐसे व्यक्ति के हृदय में प्रात्मीयता या करुरणा जग नहीं सकती है । इसके विपरीत जहां निरभिमानता है, विनम्रता है उसमें अपने को दूसरों से बड़ा समझने का भाव नहीं श्राता, दूसरों को भी अपने ही समान समझने का भाव जगता है जिससे वह अपने दुःख-सुख के समान ही दूसरों के सुख-दुःख का अनुभव करता है ।
दुःखी प्राणी के हृदय में ही करुरणा जगती है जो कठोरता को मिटाकर हृदय को कोमल-मृदु बना देती है । जैसा कि कहा गया है "जिनके पैरन फटे न बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई" अर्थात् जिसकी पगथली कभी न फटी हों वह दूसरे की पगथली फटने पर चलने से कितनी पीड़ा होती है, यह नहीं जान सकता है । आशय यह है कि जिस पर दुःख आकर पड़ता है, जिसके हाथ पैर टूट जाते हैं, अन्धा, लूला, लंगड़ा हो जाता है, जिसके घाटा लग जाता है, जिसका प्रियजन मर जाता है वह ही जानता है कि दुःख कितना भयंकर होता है । हृदय टूक-टूक हुआ जाता है, चीरा जाता है । दुःख कितना असह्य होता है उसका अनुभव उसी को होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org