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सकारात्मक अहिंसा
गाथा 37 ) अर्थात् अपनी दुष्प्रवृत्तियां अपनी शत्रु हैं और अपनी सद्प्रवृत्तियां अपनी मित्र हैं ।" मित्र वही होता है जो हित व कल्यारण करता है । यदि सद्प्रवृत्तियां लेशमात्र भी मुक्ति में बाधक होती तो श्रागम में इन्हें मित्र नहीं कहा जाता । इससे यह फलित होता है कि मैत्री श्रादि सद्प्रवृत्तियां कर्म-क्षय करने वाली हैं, कर्मबन्ध करने वाली नहीं हैं । अतः दया, दान, सेवा, परोपकार प्रादि सद्प्रवृत्तियों को कर्मबन्ध का कारण मानना ग्रागम - विरुद्ध है, भूल है । कर्मबन्ध रोकने वाली होने से मैत्री आदि सद्प्रवृत्तियां संवररूप हैं । संवररूप होने से श्रात्म-विशुद्धि करने वाली हैं। जैसा कि उत्तराध्ययनसूत्र प्र. 29 सूत्र 17 में कहा है- 'मित्तीभावमुवगए यावि जीवे भावविसोहि काउरण निब्भए भवइ' अर्थात् मैत्रीभाव से जीव भाव विशुद्धि करके निर्भय हो जाता है । मैत्रीभाव भावों की विशुद्धि करने वाला एवं संवररूप होने से धर्म है ।
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