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________________ मैत्रीभाव [ 91 भोग ही बन्ध है या कर्मबन्ध का कारण है। योग में ही धर्म है । अत: जहां मित्रता है वहां धर्म है। मित्रता में धर्म प्रोतप्रोत है। मित्रता से उत्पन्न प्रेम राग को गलाता है। राग वहीं है जहां सूख लेने की भावना है। जहां अपने सुख के त्यागने से दूसरों की खिन्नता या दुःख को दूर करने, उनकी प्रसन्नता में प्रसन्न होने का भाव है वहां प्रेम है। प्रेम ही प्रभु का रूप है, प्रभु का स्वभाव है। अत: जहां प्रेम है वहीं प्रभु है, भगवान् है। जिसके हृदय में प्रेम नहीं उमड़ता है उसके हृदय में राग-भाव पैदा हुए बिना नहीं रहता है। जहां राग है वहीं बन्धन (कर्मबन्ध) है वहीं संसार है। राग के त्याग से ही प्रेम की प्राप्ति सम्भव है । जहां राग का त्याग है, राग का अभाव है वहां वीतरागता है । जहां वीतरागता है वहां परमात्मा है । अत: जहां प्रेम है, वहां परमात्मा है । हृदय में प्राणी मात्र के प्रति मित्रता का भाव उमड़ता रहे, प्रेम का सागर लहराता रहे, यही परमतत्त्व व परमात्मत्व की प्राप्ति है। प्रेम के रस या सुख की क्षति, पूर्ति, अपूर्ति, निवृत्ति, तृप्ति, अतृप्ति कुछ नहीं होती। यह अक्षय, अव्याबाध, अनंत (प्रतिक्षण नूतन) रस सुखरूप होता है । यही परमात्मत्व की प्राप्ति की पहचान है । मित्रता में सर्वहितकारी-भाव होता है। स्वार्थभाव या भोगभाव का अभाव होता है । अपना पराया भेद वहीं गलता है जहां अहंभाव गलता है क्योंकि अहंभाव के रहते "मैं" रहता है। जहां "मैं" रहता है वहां भिन्नता व भेद रहता है । अतः वहां प्रात्मीयता या मित्रता सम्भव नहीं है । 'अहं' के गलने पर ही, अर्थात् मैं कुछ भी नहीं हूं, ऐसा 'अकिंचन भाव' होने पर ही प्रात्मीयता या मित्रता का भाव जगता है । जहां अहं भाव नहीं है, 'मैं' पन का अभाव है वहां कामना, ममता, भोगवृत्ति, स्वार्थभाव, मोह आदि का अभाव है । अतः मैत्रीभाव वीतरागता का द्योतक है। जैनागम में जितनी भी सद्प्रवृत्तियां हैं उन्हें मित्र कहा है यथा-- 'अप्पा मित्तममित्त व दुप्पट्ठिय सुपट्ठिो ।' (उत्तरा. अ. 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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