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सकारात्मक अहिंसा मैत्रीभाव राग को तो गलाता ही है। साथ ही द्वेष का भी नाश करता है । कारण कि मैत्रीभाव का विपरीत वैरभाव है । वैरभाव द्वेष का द्योतक है। अतः वैरभाव का त्याग कर मैत्रीभाव को अपनाना द्वेष को त्याग कर प्रेम को अपनाना है । इस प्रकार मैत्रीभाव राग-द्वेष का नाशक है । अत: मैत्रीभाव वीतराग साधना का, संयम का, विरति का अंग है । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा है
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ।। तत्त्वार्थसूत्र 7.2
अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव गुणियों के प्रति प्रमोद भाव, दुःखियों के प्रति करुणाभाव, और दोषियों के प्रति माध्यस्थ भाव रखना संयम में सहायक है।
इन चारों भावों में महत्त्व मैत्रीभाव का है कारण कि जिसमें मैत्रीभाव है वही गुरिणयों के प्रति प्रमोदभाव. दुःखियों के प्रति करुणाभाव और दोषियों के प्रति तटस्थभाव रख सकता है। अतः शेष तीनों भावों में मैत्रीभाव प्रोत-प्रोत है।
जहां भेद है, भिन्नता है, अलगाव है, छोटे-बड़ेपन का भाव है, वहां मैत्री नहीं है । मैत्री में दो मित्रों के बीच में अभिन्नता, अभेदता, समता, स्नेहशीलता एवं प्रेम होता है। ये ही सब गुण परमात्मा के भी हैं। अतः जहां मैत्रीभाव है, वहां परमात्म-भाव है। मित्रता और समता सहवर्ती हैं और परमात्मा समता में ही बसता है अतः दूसरे शब्दों में कहें तो मित्रता में ही परमात्मा बसता है । इसीलिए बौद्ध धर्म में मैत्री को "ब्रह्म-विहार" कहा है। . जहां स्वार्थपरता है अर्थात् अपने लिए सुख लेने की भावना है, वहां मैत्री नहीं है। मैत्री वहीं हो सकती है जहां मित्र के सुख के लिए अपने सुख का त्याग किया जाता है, मित्र की प्रसन्नता में ही अपनी प्रसन्नता का भाव होता है। अपने सुखकी प्रवृत्ति ही भोग है, अपने सुख (विषय सुख) का त्याग भोग नहीं, योग है।
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