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________________ मैत्रीभाव [ 89 1 मित्रता आत्मीयता की द्योतक है । अतः 'मित्तो मे सव्वभूएसु' का अर्थ हुआ सब प्राणियों के प्रति प्रात्मीयभाव, अपनेपन का भाव अर्थात् सर्वात्मभाव । श्रात्मीयभाव में परायेपन का भाव नहीं रहता । सर्वात्म भाव में कोई भी जीव पराया नहीं रहता । अतः प्राणी मात्र के प्रति सहायता का भाव होता है । वस्तुतः सक्रिय सहायता ही सेवा है । सेवा में सक्रिय सर्वहितकारी भाव होता है यही मैत्रीभाव है । जहां सब प्राणियों की सेवा का भाव नहीं है प्रत्युत उनके प्रति उपेक्षा का यह भाव है कि जीव दुःख पाते हैं तो पाते रहें अपनी बला से, दुःख पाते होगें अपने कर्मों से ; हमें उनसे क्या मतलब, क्या लेना देना ? ऐसा भाव जहां है और जो व्यक्ति प्राप्त सामग्री, सामर्थ्य, शक्ति, योग्यता का उपयोग अपने सुख भोग के लिए करता है, वहां सर्वात्मभाव नहीं स्वार्थभाव है । जहां स्वार्थभाव है वहां मैत्रीभाव नहीं है, भोग है । भोग समस्त दोषों व दुःखों का बीज है । यद्यपि सेवा का क्रियात्मक रूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य, योग्यता के अनुसार होता है अर्थात् सीमित होता है, परन्तु सेवा का भावात्मक रूप सर्वात्म भाव असीम होता है | सर्वात्मभाव ही सबके प्रति श्रात्मीयभाव या प्रेम का भाव है । यही सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव है । मैत्रीभाव में प्रेम होता है । प्रेम का रस राग के रस को खा जाता है । प्रेम के रस के प्रभाव में राग का रस नहीं मिट सकता भले ही कोई कितने ही काल तक संयम का पालन करे, तप करे । कारण कि बिना रस के जीवन चल नहीं सकता अर्थात् नीरसतायुक्त जीवन किसी को भी रुचिकर नहीं है । जीवन में किसी न किसी प्रकार का रस तो चाहिये ही । प्रतः जिस जीवन में प्रेम का रस नहीं होता उसमें राग का रस अवश्य पैदा होता है। जहां राग है वहां ही समस्त दोषों की उत्पत्ति है | जहां दोष है वहां दुःख है ही, यह प्राकृतिक विधान है । इस प्रकार दुःख से छूटने का उपाय दोषों का त्याग है । दोषों के त्याग का उपाय राग का त्याग है । राग के त्याग का उपाय प्र ेमभाव है । प्रेमभाव ही मैत्रीभाव है । श्रतः जहां सर्व प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव है वहां राग का, दोषों का एवं दुःखों का निवारण स्वतः होता है, इसमें लेशमात्र भी संदेह को स्थान नहीं है । I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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