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सकारात्मक अहिंसा है, केवल यह निषेधात्मक सूत्र देकर ही नहीं रह गये है अपितु इसके साथ मेरा सब जीवों के साथ मैत्रीभाव है यह विधेयात्मक सूत्र भी दिया है। यदि आगमकार को केवल अहिंसा का निषेधात्मक रूप ही अभीष्ट होता तो मेरा किसी से वैर नहीं है" इतना सा सूत्र ही पर्याप्त होता और सब जीवों के प्रति मेरी मित्रता है इस सूत्र भाग को इस सूत्र के साथ में जोड़ने की आवश्यकता ही नहीं थी। इससे स्पष्ट है कि सूत्रकार को मित्रता रूप अहिंसा का सकारात्मक पक्ष भी अभीष्ट था । कारण कि मैत्रीभाव से रहित निर्वैर भाव का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता । फिर निर्वैरभाव वैर के अभाव का द्योतक रह जाता है जिसका कोई खास महत्त्व नहीं है। यदि इसे ही महत्त्व की बात मानें तो हम सब बड़े महत्त्वशाली हैं, कारण कि अनंतानंत प्राणियों के प्रति हमारा वैर नहीं है। किन्तु वैर न होने से हमारा उन प्राणियों के साथ मैत्रीभाव है यह नहीं कहा जा सकता।
निर्वैर होना अच्छी बात इसलिए है कि इससे मित्रता की पात्रता व सामर्थ्य आता है अतः मैत्रीभाव ही महत्त्वपूर्ण है। यही नहीं, मैत्रीभाव के बिना निर्वैरता टिकती ही नहीं है। कारण कि जिस हृदय में प्रेम की सरिता नहीं बहती वह हृदय शुष्क एवं नीरस होता है। नीरसता ऊब पैदा करती है । अतः सच्चे अहिंसक साधक के हृदय में सदैव यह भाव उमड़ा रहता है कि सबका भला हो, सबका मंगल हो, सबका कल्याण हो, सबका हित हो, सब सुखी रहें । यही सच्चा मैत्रीभाव है। जैसा कि सामायिक पाठ में कहा गया है “सत्त्वेषु मैत्री" अर्थात् सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रहे।
मित्रता वहाँ ही होती है जहां वैर नहीं है, प्रेम है, सहयोग की भावना है, आत्मीयता है। आत्मीयता का अर्थ है सब प्राणियों को अपने समान समझना। अतः मित्रता में समानता का व्यवहार होता है । जहां किसी से सुख पाने की इच्छा होती है वहां भोग होता है, मित्रता नहीं होती है। मित्रता वहीं होती है जहां मित्र की प्रसन्नता के लिए अपना सुख निःस्वार्थ भाव से अर्पित कर दिया जाता है और उससे वह स्वयं प्रसन्न होता है ।
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