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________________ मैत्रीभाव [ 87 से ही अभीष्ट है। इसका स्रोत है प्रेम, मैत्रीभाव । मैत्री या प्रेम का विकृत रूप ही राग है । राग में दूसरे से सुख पाने की इच्छा रहती है। यह नियम है कि लेने वाले से देने वाले का महत्त्व अधिक होता है। लेने वाला देने वाले से हीन होता है और देने वाला लेने वाले से महान होता है। अतः जहां राग है, विषय-सुख का भोग है वहां हीनता है, दीनता है, पराधीनता है । इसके विपरीत प्रेम या मैत्रीभाव में दूसरों को प्रसन्नता प्रदान करने की, सेवा की, सहायता की उदात्त भावना रहती है। उदात्त भावना व उदारता से हृदय में प्रसन्नता निवास करती है । जिसके हृदय में प्रसन्नता निवास करती है उसे अन्य किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति से प्रसन्नता पाने की आवश्यकता ही नहीं होती। जिसे अन्य से सुख पाने की आवश्यकता नहीं होती उसके हृदय में कामना या इच्छा की उत्पत्ति नहीं होती, अन्य से सुख लेने की, अर्थात् भोग की भावना ही नहीं होती। अतः भोग से बचने, भोग से मुक्ति पाने का उपाय है प्रेम या मैत्रीभाव । भोग से मुक्ति ही समस्त दोषों से, दुःखों से, शरीर से, संसार से मुक्ति है। यही सच्ची मुक्ति है। जहाँ छोटे बड़े का भेद है वहां प्रेम या मित्रता नहीं हो सकती। प्रेम या मित्रता वहीं संभव है जहां समानता का भाव है। समानता में समता और समता में समानता ओतप्रोत है। समानता या समता विषमता को खा जाती है। विषमता ही समस्त द्वन्द्वों व दु:खों का कारण है । अतः विषमता के अन्त में ही समस्त द्वन्द्वों, दोषों व दुःखों का अन्त है । यही मुक्ति है । अतः मुक्ति मैत्री (प्रीति) की देन है यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा। मैत्रीभाव का समर्थन करते हुए अावश्यकसूत्र में कहा गया है: 'मित्ती में सव्वभूएसु, वेरं मज्झं ण केणईं।' अर्थात् मेरा किसी से वैर नहीं है, सभी प्राणियों के प्रति मित्रता है। इस सूत्र को प्रातः सायं प्रतिक्रमण करते हुए दोहराना आवश्यक कहा गया है। इस सूत्र में आगमकार "मेरा किसी जीव से वैर नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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