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मैत्रीभाव
मैत्रीभाव में हृदय प्रेम-रस से अोतप्रोत रहता है। जहां मित्रता (प्रेम) का रस है वहां परमानन्द के सागर में प्रसन्नता की लहरें अठखेलियां करती रहती हैं । क्षति, पूर्ति, अपूर्ति, निवृत्ति रहित नित-नूतन रस उमड़ता रहता है। इस रस से पूरित हृदय में कामना, राग, द्वेष, मोह आदि उत्पन्न नहीं होते।।
मित्रता में प्रेम होता है, राग नहीं होता है। राग वहीं होता है जहां अन्य से, पर से सुख लेने की या सुख पाने की इच्छा होती है। जबकि प्रेम में अपना सूख-वितरण करने का, त्यागने का भाव होता है, सुख लेने का नहीं। मित्रता में स्वयं कष्ट पाकर भी मित्र का दुःख दूर करने का, मित्र की प्रसन्नता बढ़ाने का, मित्र का हित करने का भाव होता है । मित्र, मित्र की प्रसन्नता के लिए, हित के लिए अपने विषय सुख को त्यागने तथा कष्ट उठाने को तैयार रहता है और बदले में मित्र से लेश मात्र भी सुख पाने की चाह नहीं रखता है । मित्र में निःस्वार्थ त्याग होता है । निःस्वार्थ त्याग ही धर्म है। वही साधना है । अतः मित्रता त्याग का, धर्म का, साधना का जीता जागता रूप है।
मित्र से मित्र की सहायता किये बिना नहीं रहा जाता। मित्र भूखा प्यासा रहे और स्वयं भोजन करता रहे, मित्र रोगी रहे, कष्ट पाता रहे उसकी सेवा सुश्रुषा न करे, मित्र खड्ड में गिर जाय उसे उठावे नहीं, उसकी सहायता न करे फिर भी मित्र होने का कोई दावा करता रहे तो ऐसी मित्रता का कोई अर्थ नहीं है। इसे मित्रता कहना भूल है। ऐसी मित्रता मित्रता नहीं शत्रुता है, मित्रता का उपहास करना है, घोर क्रूरता है, अमानवीयता है, पशुता है, जिसका मानव-जीवन में कोई स्थान नहीं है।
मैत्रीभाव का नाम ही प्रेम है। जहां प्रेम है, वहाँ राग नहीं। जहां राग है वहां प्रेम नहीं । प्राणी मात्र को रस या सुख स्वभाव
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