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________________ सकारात्मक अहिंसा धर्म है 85 अहोभाग्य मानते हैं। अतः उसके सहयोग व सेवा के लिए सदा उद्यत रहते हैं । यह उसके शुभभाव का अवान्तर व आनुषंगिक फल है। यह उत्कृष्ट भौतिक विकास का द्योतक है । यद्यपि शुभभाव वाले व्यक्ति को किसी से सेवा की अपेक्षा नहीं होती है। उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से स्वतः होती रहती है। वह अभाव से रहित सदा ही वैभवसंपन्न होता है। तात्पर्य यह है कि कषाप को कमी रूप शुभभाव, सद्प्रवृत्तियां या क्षायोपशमिक भाव से घाती कर्मों का क्षयोपशम रूप क्षय होता है और अघाती कर्मों की शुभ-प्रकृतियों के अनुभाग का उत्कर्षण होता है। कषाय के क्षय रूप शुद्धभाव व शुभयोग से चारों घाती कर्मों का क्षय हो अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतदान, अनंतलाभ, अनंतभोग, अनंत उपभोग, अनंतवीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व व चारित्र की उपलब्धि होती है। अर्थात् प्राणी का प्राध्यात्मिक व भौतिक रूप से सर्वाङ्गीण विकास होता है । फिर उसे कुछ पाना व जानना शेष नहीं रहता, वह कृतकृत्य हो जाता है । सकारात्मक अहिंसा साधना है अतः इसमें महत्त्व अपने विषयभोग एवं कषायजन्य सुखों के त्याग का है। अतः सकारात्मक अहिंसा में उन्हीं सद्प्रवृत्तियों का स्थान है जो राग, द्वेष, ममत्व, अहंत्व गलाने में सहायक हैं। इसके विपरीत जिनसे राग-द्वेष कषाय आदि बढ़े वे बाहर से भले ही सद्प्रवृत्तियां प्रतीत हों, किन्तु वस्तुतः वे सकारात्मक अहिंसा रूप नहीं है । साधक इस तथ्य को सदैव स्मरण रखकर सकारात्मक अहिंसा की समीचीन साधना करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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