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________________ सकारात्मक अहिंसा धर्म है सामान्य जन तो दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियों को धर्म ही मानते हैं, परन्तु कुछ बुद्धिवादी व्यक्ति यह युक्ति देते हैं कि दया, रक्षा, वात्सल्य, सेवा प्रादि अहिंसा की विधिपरक सद्प्रवृत्तियाँ कर्मबंध की हेतु होने से संसार में भ्रमण कराने वाली हैं। अतः मुक्ति में बाधक होने से धर्म रूप नहीं है। धर्म तो निवृत्ति रूप ही होता है । परन्तु, उनकी यह मान्यता न तो आगम-सम्मत है और न युक्तियुक्त । इसी पर आगे विचार किया जा रहा है । ... प्रवृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं :-(1) दुष्प्रवृत्ति और (2) सद्प्रवृत्ति । हिंसा, झूठ, चोरी, विषय भोग प्रादि दुष्प्रवृत्तियों को पाप कहा जाता है जो उपयुक्त ही है। ऐसी दुष्प्रवृत्तियाँ दुःख देने वाली व भव-भ्रमण कराने वाली होने से सर्वथा त्याज्य हैं। दया, दान, वात्सल्य, वैयावृत्य आदि सप्रवृत्तियाँ पात्मा के विकारों को दूर करने वाली, आत्मा को पवित्र करने वाली तथा कर्मों का क्षय करने वाली हैं अतः इन्हें धर्म कहा जाता है । दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियाँ गुण रूप हैं और हिंसा, झूठ आदि दुष्प्रवृत्तियाँ दोष रूप हैं, गुण और दोष दोनों परस्पर में विरोधी हैं। गुण स्वभाव रूप होते हैं और दोष विभाव रूप । स्वभाव कभी भी कर्मबंध का कारण नहीं होता है, कर्म-बंध का कारण विभाव ही होता है । स्वभाव को धर्म और विभाव को पाप कहा जाता है। अतः गुणरूप दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियाँ धर्म हैं और हिंसा, झूठ प्रादि दुष्प्रवृत्तियां अधर्म या पाप हैं । दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियों से कर्मों का क्षय होता है। कर्मों का क्षय मुक्ति में हेतु है। मुक्ति प्राप्ति में हेतु होने से दया, दान आदि सप्रवृत्तियाँ या गुण धर्म हैं । इन्हें कर्मबन्ध का व संसार-भ्रमरण का कारण मानना, इनको अधर्म मानना है। धर्म को अधर्म मानना मिथ्यात्व है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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