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आत्मीयता और सहानुभूति
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है और सिंह का सामना करने को उद्यत हो जाती है। बन्दरों, मधुमक्खियों आदि में पारिवारिक भाव देखा जाता है । मानव में यह भाव अत्यधिक विकसित होता है । उसकी प्राणी मात्र के प्रति सहानुभूति होती है। यदि उसकी सहानुभूति परिवार तक ही सीमित है तो उसे नर न समझकर वानर ही समझना चाहिये उसका विकास वानर तक ही हुआ है । जो मानव परिवार के प्रति भी सहानुभूति नहीं रखता है वह मानव वानर से भी गया बीता है, वानर से भी कम विकसित है। चेतना के विकास की द्योतक सहानुभूति या संवेदनशीलता है, भौतिक सम्पत्ति नहीं । भौतिक सम्पत्ति कितनी ही हो, किन्तु हृदय में संवेदनशीलता या सहानुभूति न हो, उद्योग आदि में दूसरों का शोषण करने, कष्ट देने में जिसे संकोच न हो, अपने पास पड़ोस के लोगों को भूखा-नंगा देखकर भी कार में गुलछरें उड़ाता फिरे ऐसे कठोर हृदय वाला व्यक्ति मानवाकृति में पशु ही है। वह चाहे फिर उद्योगपति, खरबपति, नरपति, राष्ट्रपति, नेता, विद्वान्, लेखक, वक्ता, प्रवचनकार ही हो वह मानवाकृति में पशुता और दानवता का प्रतीक है। उसे मानव कहना मानवता को लज्जित करना है, मानव जाति का अपमान करना है ।
धर्म वह है जिससे प्रात्म-विकास हो । आत्म-विकास वहाँ है जहां संवेदनशीलता है। जहां संवेदनशीलता है वहां आत्मीयता है। इस प्रकार जहां आत्मीयता है वहां धर्म है।
___ जो अपनी देह और इन्द्रियों के भोग में तत्पर रहता है, वह पशु है। भोग पशुता का ही प्रतीक है । जो अपनी देह व इन्द्रिय भोग के सुख को ही जीवन मानता है वह घोर स्वार्थी होता है। वह अपने विषय सुख में इतना गृद्ध होता है कि उसे अन्य की तो क्या कहें, अपने परिवार के लोगों के कष्ट की भी परवाह नहीं होती। उसका प्रात्म-विकास अपनी देह तक ही सीमित होता है, उसकी वृत्तियां व विचार अपने ही व्यक्तिगत सुख तक सिमटे होते हैं। ऐसा संकीर्ण हृदय वाला व्यक्ति इन्द्रिय विषयों के क्षणिक व नश्वर सुख में ही अपना जीवन खो देता है । वह परमात्मा के परमानन्द रूप
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