________________
[
67
आत्मीयता और सहानुभूति मोह, राग, विषय-भोग, कामनापूर्ति, काम, क्रोध, मद, लोभ से मिलने वाला सुख क्षणिक सुख है। उसके साथ नश्वरता, पराधीनता, जड़ता, शक्तिहीनता, नीरसता, अभाव आदि सुख ऐसे ही लगे रहते हैं, जैसे काया के साथ छाया । ऐसे दुःखगभित सुख को पाने का ध्येय अविकसित प्राणी ही बनाते हैं, विकसित प्राणी तो अक्षय, अखंड, सनातन, शाश्वत, अनंत सुख पाने को अपने जीवन का ध्येय बनाते हैं तथा उसकी उपलब्धि के लिए खोज व पुरुषार्थ करते हैं, ऐसा सुख आत्मीयता या प्रेम के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं संभव नहीं है।
आत्मीयता में ही सच्चा सुख है। इस तथ्य को भारत के तत्त्वद्रष्टा ऋषि महर्षियों ने अति प्राचीनकाल में ही खोज लिया था। उन्होंने इसे क्रियात्मक रूप देने के लिए अपने निकटवर्ती लोगों में इसका प्रसार प्रारम्भ किया जो क्रमशः परिवार, समाज, संघ, राष्ट्र प्रादि के रूप में प्रकट हुआ। व्यक्ति के सबसे निकट उसके परिवार के लोग रहते हैं अतः उनके प्रति आत्मीयभाव रखकर स्वयं दुःख पाकर भी उनका भरण-पोषण करे, उनके दुःख को दूर करे, उन्हें सुख पहुंचाने के लिए सदैव तत्पर रहे, इसे ही उसका कर्तव्य भी कहा गया है। जिस परिवार के सब सदस्यों में यह प्रात्मीयभाव है, उस घर में प्रेम के रस की सरिता बहती है । उस घर में दिव्य आनंद के पयोधर उमड़े रहते हैं । उसमें देवता निवास करते हैं, वह घर वस्तुतः स्वर्ग है। आत्मीयता का रस अक्षय एवं अविनाशी रस है, अतः यह अमरत्व रूप है और अमरलोक ही स्वर्गलोक है।
परिवार के सब लोगों के पारस्परिक आत्मीयभाव से रहने को सभ्य कहा जाता है। जहां सभ्यता है वहाँ ही सच्ची सम्पन्नता, सम्पदा है। किसी को धन कितना ही मिल जाय उससे इन्द्रियों का क्षणिक सुख ही मिल सकता है, जो प्रतिक्षण क्षीण होकर कुछ ही समय में नष्ट हो जाता है, नीरसता में बदल जाता है, परंतु उसे अक्षय सुख नहीं मिल सकता ।' यही कारण है कि किसी घर में धन व सुख की सामग्री कितनी ही बढ़े उससे शान्ति व प्रसन्नता नहीं बढ़ती है । जीवन में नीरसता ज्यों की त्यों बनी रहती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org