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आत्मीयता और सहानुभूति
जैसे चन्द्रिका का विकास चन्द्र के विकास का द्योतक है उसी
प्रकार आत्मीयता का विकास आत्मा के विकास का द्योतक है । जैसे-जैसे आत्मा का विकास होता जाता है वैसे-वैसे आत्मीयता का विकास होता जाता है । आत्मीयता का क्रियात्मक रूप सेवा है । सेवा के विविध रूप हैं--दान, दया, वत्सलभाव, मैत्रीभाव आदि । अर्थात् अहिंसा के जितने भी सकारात्मक रूप हैं, उन सबका प्राण या हार्द श्रात्मीयता ही है । जैसे हम स्वयं अपने आपको प्यारे लगते हैं वैसे ही सभी प्राणियों का हमें प्यारा लगना आत्मीयता है । आत्मीयता चेतन प्राणियों के प्रति होती है, जड़ या पुद्गल के प्रति नहीं होती । आत्मीयता श्रात्मा या परमात्मा का गुण है । आत्मीयता को ही प्रेम कहा जाता है । प्रात्मीयता का क्रियात्मक रूप ही मानवता है ।
जिसमें मानवता नहीं वह प्राकृति से भले ही मानव हो, प्रकृति से तो पशु ही है। जो अपने ही भोग में रत रहता है, अपने इन्द्रिय सुख को ही सब कुछ समझता है, वह पशु है । पशुयोनि भोगयोनि है । मानव मानवता के कारण पशु से उच्च व श्रेष्ठ होता है | मानवता है स्वयं दुःख सहन करके भी दूसरों के दुःख को बंटाना, अपने को उपलब्ध सुख की सामग्री का स्वयं भोग न कर दूसरों की सहायता में लगाना, सब प्राणियों को अपने समान समझ कर अपनत्व से उनकी सहायता करना तथा उनकी प्रसन्नता को बढ़ाना एवं स्वयं प्रसन्न होना । यही सबके प्रति अपनत्वभाव या आत्मीयता है । मानवता तथा आत्मीयता का क्रियात्मक रूप ही अहिंसा का क्रियात्मक रूप है । मानवता, आत्मीयता, उदारता, बंधुता, मित्रता, वत्सलता ये सब समानार्थक शब्द हैं एवं अहिंसा के सकारात्मक रूप हैं |
हिंसा के सकारात्मक रूपों के विकाप ही में प्राणी का वास्तविक विकास है । इसी से सच्चा सुख, अक्षय सुख मिलता है ।
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