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सकारात्मक अहिंसा
भाव होता है वहां प्रेम नहीं होता है। प्रेम तो जाति-पाँति, संप्रदाय धर्म, वर्ग, समाज, वाद, मत, आदि के भेद के बिना सबके प्रति समान होता है । माता का भी सपूत-कपूत का भेद किए बिना पुत्र के प्रति अपार प्यार उमड़ता है। वह उसका दुःख दूर करने के लिए अपना सर्वस्व तक अर्पण करने को तैयार रहती है। गाय अपने बछड़े की रक्षा के लिए सिंह से मुकाबला कर अपने प्रारण भी न्यौछावर कर देती है। ऐसा वात्सल्यभाव समस्त प्राणियों के प्रति जागृत हो जाना ही ईश्वरीय प्रेम है। जितना-जितना राग घटता जाता है उतनी ही प्रेम की अभिव्यक्ति स्वतः होती जाती है। राग ही प्रेम का घातक और बाधक है। अतः राग के त्याग में ही प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। जितनी राग, मोह या विषय-भोग में कमी होती जाती है उतनी ही चेतना का भोग-उपभोग गुण प्रकट होता जाता है। इसे ही जैन-दर्शन में भोगान्तराय व उपभोगान्तराय का क्षयोपशम कहा है।
वात्सल्य के इसी महत्त्व के कारण उसे सम्यग्दर्शन का अंग भी कहा गया है, यथा
निस्संकिय निक्कंखिय निन्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उवगृहथिरीकरणे वच्छलपभावणे अट्ठ ।।
(उत्तराध्ययनसूत्र-8-31) अर्थात् निःशंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के गुण हैं । मूलाचार (अं. 20), सर्वार्थसिद्धि (6-24), राजवात्तिक (6.24), पंचाध्यायी (479-80) आदि में भी इनका उल्लेख है । समयसार (177) एवं वसुनन्दिश्रावकाचार (49) में संवेग, निर्वेद, निंदा, गर्दा, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा वात्सल्य ये आठ गुण सम्यक्त्व युक्त जीव के बताए गए हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि 'वात्सल्य' व 'अनुकंपा' ये दोनों सम्यग्दर्शन के अंग या प्राचार हैं । सम्यग्दर्शन
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