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सकारात्मक अहिंसा
या निर्जरा में सबसे अधिक महत्त्व है । फलितार्थ यह है कि सेवा रूप वात्सल्यभाव का कर्मों को क्षय करने में महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसीलिए सम्यक्त्व के आठ अंगों में वात्सल्यभाव को भी अंग माना है ।
जिस प्रकार वात्सल्यभाव में माता अपने पुत्रों की समान भाव से सेवा करती है, उसके हृदय में किसी पुत्र के प्रति भेदभाव नहीं होता है फिर भी वह जानती है कि जो पुत्र अधिक दुःखी है उसे अधिक सहायता की अपेक्षा है, वह अन्य पुत्रों से प्रथम व अधिक सहायता पाने का पात्र है । अतः वह अपने पुत्रों में जो अधिक कमजोर है, दुःखी है उसकी सेवा को प्राथमिकता देती है; इसी प्रकार समाज में जो सबसे अन्तिम स्तर पर निर्बल हैं, दरिद्र हैं वे अधिक सहायता के पात्र हैं । अतः इस अंतिम स्तर के वर्ग की सेवा करके उसे ऊँचा उठाना सर्वप्रथम कर्त्तव्य है । अन्त्योदय में यही वात्सल्यभावना काम करती है ।
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किसी जीव को बचाने में वात्सल्यभाव होता है । वात्सल्य भगवद्गुण है | भगवान् जगत्वत्सल होते हैं । जैसे माता में अपने वत्सों के प्रति हित की भावना होती है तथा उसका प्रत्येक कार्य अपने पुत्रों के हित के लिए होता है, उसी प्रकार जगत्वत्सल प्रभु में सर्वहित की भावना होती है । यदि माता के दो पुत्र परस्पर लड़ते हैं, एक दूसरे को मारते हैं या कष्ट पहुंचाते हैं तो वह उन्हें रोकती है, उन्हें अंवाछनीय घटना से बचाती है । इसमें माता का एक पुत्र के प्रति राग और दूसरे पुत्र के प्रति द्वेष हो, सो नहीं है । उसे सब पुत्र समान रूप से प्यारे हैं । वह सभी का हित चाहती है । उसका यह कार्य श्रेष्ठ है, राग द्वेष रूप पाप कार्य नहीं है, क्योंकि यह कार्य उसकी सुखासक्ति अर्थात् राग को गलाने वाला है । इसीलिए वात्सल्य को कल्याणकारी - मंगलकारी कहा है । बचाने वाले के हृदय में जिसको बचाया जाता है उसके प्रति और जिससे बचाया जाता है उसके प्रति अर्थात् सबके प्रति वात्सल्यभाव होता है जो भगवद्गुण है ।
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