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________________ वात्सल्य [ 61 होता है। विराग की चरमसीमा वीतराग अवस्था है। सेवा या परोपकार की प्रवृति का क्रियात्मक रूप विराग है। तात्पर्य यह है कि सेवा या वात्सल्यभाव की उपयोगिता का महत्त्व जीवन के विकास क्रम में प्रादि से अन्त तक है। मोह-भाव और वात्सल्य-भाव में बहुत अन्तर है। मोह में दूसरों से सुख पाने की भावना रहती है, वात्सल्य में दूसरों को सुख पहुंचाने की, उनका दुःख दूर करने की भावना रहती है और उनसे प्रतिफल में सुख मिले यह भावना नहीं रहती। मोह में सुख के प्रादान-प्रदान की भावना रहती है और वात्सल्य में अपने को प्राप्त सुख के साधनों को दूसरों के हित में वितरण करने की भावना रहती है, जो ऐन्द्रिक सुख की दासता से मुक्ति दिलाने में सहायक होती है। मोह में स्वार्थपरता होती है और वात्सल्य में उदारता होती है। उदारता या आत्मीयता की भावना से जिसके साथ उदारता का व्यवहार किया जाता है, उसमें भी उदारता एवं प्रात्मीयभाव की जागृति होती है, जो उसके आत्म-विकास में सहायक होती है । वात्सल्य का क्षेत्र जितना व्यापक होगा उतना ही राग पतला होगा। जिस प्रकार रबर का गुब्बारा जितना फैलता जाता है उतना ही पतला होता जाता है और चरम सीमा पर फैलने पर फूट जाता है, इसी प्रकार जिसका मोह या राग जितना-जितना पतला होता जाता है आत्मीयभाव उतना ही उतना विस्तृत होता जाता है और फैलता जाता है। उसका आत्मीयभाव परिवार से पड़ोस में पड़ौस से समाज में, समाज से सम्पूर्ण मानव जाति में, मानव जाति से पशु पक्षियों में, कीट-पंतगों में, वनस्पति आदि स्थावर जीवों में फैलता हुमा प्राणी मात्र तक फैल जाता है और सर्वहितकारी-भाव का रूप ले लेता है। अन्त में मोह और राग का क्षय होकर क्षीणमोह या वीतराग अवस्था प्राप्त हो जाती है । वात्सल्य या आत्मीयभाव का क्रियात्मक रूप सेवा है। सेवा को शास्त्रीय भाषा में वैयावृत्य कहा गया है । । वैयावृत्य (सेवा) को प्राभ्यन्तर तप में स्थान दिया गया है। प्राभ्यन्तर तप का कर्म क्षय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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