SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 60 ] सकारात्मक अहिंसा होता है, मोह होता है, वत्सलता नहीं । अतः वत्सलता निःस्वार्थ प्रेम की ही द्योतक है। वत्स माता के संयोग या सेवा के बिना एक दिन भी नहीं जी सकता, पुत्र पैदा हुआ और पैदा होते ही उसे दूध चाहिये । यदि माता उसे दूध न पिलाये तो वह जिन्दा नहीं रह सकता। माता का उसे दूध पिलाना अनिवार्य है। दूध पिलाना ही नहीं हर प्रकार की सहायता करना माता का कर्त्तव्य है। जो माता ऐसा नहीं करती वह वात्सल्यधर्म नहीं निभाती है अतः “वात्सल्य" शब्द सक्रिय सहायता का ही द्योतक है। यही अहिंसा का विधिपरक रूप है। तीर्थकर भगवान् तीन करण तीन योग से अहिंसा के पालक होते हैं । पागम में उनके लिए वात्सल्य विशेषण का प्रयोग विशेष रूप से किया है। इससे स्पष्ट है कि भगवान् सर्वहितकारी प्रवृत्ति करते ही थे, जैसा कि प्रश्नव्याकरणसूत्र संवर-द्वार एक में कहा है'ऐसा भगवती अहिंसा जा सा अपरिमियनाणदंसणधरेहिं सीलगुण-विरणय-तव संजम-नायकेहिं तित्थंकरेहिं सव्वजगवच्छलेहि तिलोगमहिएहिं जिणचंदेहिं सुठुदिट्ठा' अर्थात् अपरिमित ज्ञान-दर्शन धारण करने वाले, शील, विनय, तप, संयम के नायक तीर्थंकर, सर्वसंसार के जीवों के प्रति वात्सल्यकारक, तीनों लोकों में पूजनीय, वीतराग देव अहिंसा के विशिष्ट रूप में ज्ञाता द्रष्टा भी हैं। वीतराग भगवान् जगत्वत्सल हैं, इस प्रकार का उल्लेख प्रागमों में अन्यत्र भी मिलता है। वात्सल्यभाव अहिंसा का विधेयात्मक रूप है । इसे अनुराग भी कहते हैं। राग का शोधन या परिष्कार अनुराग है । राग आत्मा के पतन का कारण है। यही राग जब अनुराग का रूप धारण कर लेता है तो आत्मा के उत्थान का कारण बन जाता है। राग हमेशा स्थूल या भौतिक पदार्थों के प्रति होता है और अनुराग प्राणी के प्रात्मगुणों के प्रति होता है। राग जड़-पदार्थों से सम्बन्ध जोड़ता है अतः जड़ता पैदा करता है। अनुराग चैतन्य से सम्बंध जोड़ता है, अतः चिन्मयता का विकास करता है । अनुराग का अन्त विराग में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy