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________________ वात्सल्य 'वात्सल्य' शब्द माता का पुत्र के प्रति निःस्वार्थ हित करने के भाव का द्योतक है । तत्वार्थराजवात्तिक 6.24 में वत्स के प्रति गाय के अकृत्रिम अर्थात् निःस्वार्थ स्नेह को वात्सल्य कहा है, यथा 'धेनुर्वत्से अकृत्रिमस्नेहमुत्पादयति ।' माता पुत्र के कष्ट को सहन नहीं कर सकती, पुत्र का कष्ट दूर करने में सदा तत्पर रहती है। यही वात्सल्यभाव है, यही माता का मातृत्व है। जिस माता में यह मातृत्व या वात्सल्य नहीं है वह माता कहलाने की अधिकारिणी नहीं हो सकती, जन्मजात लघु-पुत्र, भूख-प्यास, सर्दीगर्मी रोग, पीड़ा आदि से तड़फता रहे, रुदन करता रहे और माता निरपेक्ष भाव से उसे देखती हुई अपने सुख व मौज में डूबी रहे, उसके कष्ट को दूर करने का प्रयत्न न करे तो वह माता, माता नहीं, चुडैल ही कहलाती है । वस्तुतः वात्सल्य में निःस्वार्थभाव से वत्स को खिलाने, पिलाने उसके कष्टों को दूर करने, उसे स्नेह देने, सहायता पहुंचाने का भाव विद्यमान रहता ही है । ___ जिस प्रकार माँ से संतान का दुःख नहीं देखा जा सकता, सहा नहीं जा सकता, संतान का कष्ट दूर करना उसका सहज स्वभाव होता है इसी प्रकार पूर्ण अहिंसक वीतराग में सर्वजगत् के जीवों का हित करने रूप वात्सल्य सहज स्वभाव होता है। इसलिए वे जगत्वत्सल कहे जाते हैं। वत्सलता में राग नहीं होता है। राग वहीं है जहां विषय सुख पाने की, विषय-भोग भोगने की इच्छा होती है। वात्सल्य में पुत्र से सुख पाने की इच्छा नहीं होती है । गाय अपने वत्स (बछड़े) की रक्षा के लिए प्राण तक दे देती है। बछड़ा बड़ा होकर गाय को किसी प्रकार की सेवा या सहायता नहीं करता है । गाय को बछड़े से प्रतिफल पाने की कोई आकांक्षा नहीं होती है, कारण कि जहाँ प्रतिफल-रूप विषय सुख पाने की इच्छा होती है वहाँ राग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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