________________
58 ]
सकारात्मक अहिंसा 5. जे एणं पडिसेहति वित्तिच्छेयं करतिते (सूत्रकृतांग), जो अनुकंपा दान का प्रतिषेध करता है वह असहायों को वृत्ति का छेदन करता है। 6. जे पुणलच्छि संचति ण य देदि पत्तेसु ।
सो अप्पाणं वंचिदि मणुयत्राणिप्फलं तस्स ।।
जो मनुष्य लक्ष्मो का संचय करता है, दान नहीं देता वह अपनी आत्मा की वंचना करता है, उसका मनुष्य-जन्म लेना वृथा है।
7. दानेन सत्त्वानि वशीभवन्ति ।
दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् । परोऽपि बन्धुत्वमपैति दानात् तस्माद्धि दानं सततं प्रदेयम् (धर्मरत्नप्रकरण-सटीक)
दान से प्राणी वशीभूत होते हैं। दान से वैर नाश को प्राप्त होता है । पराया व्यक्ति भी दान से बन्धुता को प्राप्त होता है। इसलिए सतत दान देना चाहिए।
8. कस्मात् स एव परमो धर्म इति चेत्, निरन्तरविषयकषायाधीनतया अतिरौद्रध्यानरतानां निश्चयरत्नत्रयलक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति । -परमात्मप्रकाश-टीका
__2/111
प्रश्न होता है कि श्रावकों का दानादिक ही परमधर्म कैसे है ? तो उत्तर में कहना होगा कि ये गृहस्थ लोग हमेशा विषयकषाय के प्राधीन हैं, इससे उनके प्रारी-रौद्रध्यान उत्पन्न होते रहते हैं। इस कारण निश्चय रत्नत्रय रूप शुद्धोपयोग परमधर्म का तो इनके कोई ठिकाना ही नहीं है। कहने का अभिप्राय यह है कि कषायभाव की कमी के लिए दान भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org