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दान
[ 57 दान के सम्बन्ध में अनेक पोषक कथन मिलते हैं यथा
1. सत्रमप्यनुकम्प्यानां सजेदनुजिघृक्षया। चिकित्साशालवद्दुष्येन्नेज्जायै वाटिकाद्यपि ॥ सागारधर्मामृत 2/40
पाक्षिक श्रावक औषधालय की तरह दुःखी प्राणियों के उपकारार्थ अन्न-जल वितरणों के स्थान, वाटिकाएं, सरोवर आदि बनायें तो कोई हर्ज नहीं है।
2. अइबुड्ड-बालमूकन्ध-बहिर-देसंतरीय-रोगाणं । जह जोग्गं दायव्वं करुणादाणंतिभरिणऊरण (235) उपवास-वाहि-परिसमकिलेस-परिपीडयं मुणेऊरण । पत्थं सरीर-जोग्गं भेसजदाणं पि दायव्वं ।। वसुनन्दि श्रावकाचार, 239 ।
___अर्थात् अतिवृद्ध, बालक, मूक (गूगा), अन्ध, बधिर, परदेशी और रोगी जीवों को यथायोग्य आहार आदि का दान देना करुणादान है। उपवास, व्याधि, परिश्रम से थकित और क्लेश से पीड़ित जीव को शरीर के योग्य औषध दान देना चाहिये ।
3. मितं भुड्क्ते सविभज्याश्रितेभ्यो, मितं स्वपित्यमितं कर्म कृत्वा । ददात्यमित्रेष्वपि याचितः सन्,
तमात्मवन्तं विजहत्यनाः ॥ [महाभारत]
जो अपने आश्रितों को बांटकर स्वयं थोड़ा ही खा लेता है, अधिक काम करके थोड़ा ही पाराम करता है और मांगने पर शत्रु को भी दान देता है उस आत्मज्ञानी को अनर्थ स्पर्श नहीं करते हैं।
4. गीता प्रवृत्ति और अप्रवृत्ति दोनों से निवृत्ति को भिन्न मानती है । प्रवृत्ति को रजोगुण मानती है, अप्रवृत्ति को तमोगुण मानती है। धर्म को सद्प्रवृत्ति समझती है। इन तीनों से निवृत्ति भिन्न है। यह ध्यान न आने के कारण निवृत्ति का अर्थ भारत में प्रायः अप्रवृत्ति हो गया है। ['विनोबा भावे' पाश्रम दिग्दर्शन]
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