________________
56 ]
सकारात्मक अहिंसा
अनपढ़, युवा हो या वृद्ध, नर हो या नारी, दान देकर अपने को प्रसन्न बना सकता है ।
अभयदान का महत्त्व बताते हुए सूत्रकृतांगसूत्र -- 1-6-23 में कहा है “दागाणं सेट्टमभयप्पयाणं” अर्थात् दानों में सर्व श्रेष्ठ दान जीव को अभय प्रदान करना है, उसे दुःख के भय से मुक्त करना है । व्याधि से बचाकर मृत्यु के भय से, अन्न देकर भूख के भय से, औषध देकर रोग के भय से, इसी प्रकार अन्य भयों से 'छुटकारा दिलाना भी अभयदान में आता है। इस प्रकार अभयदान में सब दान समाहित हो जाते हैं ।
जैनधर्म में गृहस्थ के दान को अतिथि संविभाग व्रत रूप संवरधर्म माना है । अतः श्रावक का कर्त्तव्य है कि अपनी प्राप्त व उपयोग में आने वाली सामग्री का एक भाग अतिथि के लिए निकाल कर गृहस्थ-धर्म का पालन करे । इस पर यहां तक जोर देकर कहा गया है कि "संविभागी र हुतो मोक्खो" अर्थात् असंविभागी को मोक्ष नहीं हो सकता ।
जैन-धर्म में दान का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है, यथा
1. त्यागो दानम् तत्त्रिविधम् श्राहारमभयदानं ज्ञानदानञ्चेति । सर्वार्थसिद्धि 6-24
अर्थात् त्याग ही दान है । वह दान तीन प्रकार का है । 1. प्रहार दान 2. अभयदान और 3. ज्ञान दान ।
श्राहारौषधयोरप्युपकररणावासयोश्च
ब्रुवते चतुरात्मत्वेन
दानेन वैयावृत्यं
117,
चतुरस्रा: - रत्नकरंड श्रावकाचार वसुनंदिश्रावकाचार 233
अर्थात् चार ज्ञान के धारक गरणधर (1) आहार (2) औषध ( 3 ) उपकरण और (4) श्रावास इन चार प्रकार के दानों को वैयावृत्त्य कहते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
.www.jainelibrary.org