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________________ ( ५७ ) सब कथनों के मेल से धर्मकीर्ति का अस्तित्व उक्त समय में (ई. सं. ६३५-६५०) मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है। प्रो० के० बी० पाठक ने अपने ‘भर्तृहरि और कुमारिल नामक निबन्ध में लिखा है कि-मीमांसाश्लोकवार्तिक के शून्यवादप्रकरण में कुमारिल ने बौद्धमत के 'आत्मा बुद्धि से भेदवाला दिखाई देता है' इस विचार का खण्डन किया है। श्लोकवार्तिक की व्याख्या में इस स्थान पर सुचरितमिश्र ने धर्मकीर्ति का निम्नलिखित श्लोक, जिसको शंकराचार्य और सुरेश्वराचार्य ने भी लिखा है, बारम्बार उद्ध त किया है। अविभागोऽपि बुद्धयात्मा विपर्यासितदर्शनैः । ग्राह्य-ग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ।। इससे यह मालूम होता है कि कुमारिल ने दिङ्नाग और धर्मकीर्ति दोनों के विचारों की समालोचना की है। अतः यह सिद्ध होता है कि कुमारिल धर्मकीर्ति के बाद हए । धर्मकीर्ति जब ईस्वी की ७वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में विद्यमान थे तब कुमारिल कम से कम उसी शताब्दी के अन्त में होने चाहिए । कुमारिल का नामोल्लेख, जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, हरिभद्र ने किया है और हरिभद्र का नामस्मरण कुवलयमालाकथा के लिखने वाले दाक्षिण्यचिह्न ने। दाक्षिण्यचिह्न का समय ई. सं. की ८वीं शताब्दी का तृतीय भाग निश्चित है । अतः हरिभद्र का अस्तित्व उसके प्रथमार्ध में या मध्यम-भाग में मानना पड़ेगा। इस प्रकार भर्तृहरि और कूमारिल के कालक्रम से विचार किया जाय अथवा धर्मकीर्ति और कूमारिल के काल क्रम से विचार किया जाय-दोनों गणना से हरिभद्र का ८ वीं शताब्दी में ही--फिर चाहे उसके आरम्भ में या मध्य में होना निश्चित होता है। - इसी तरह का, परंतु इनसे भी विशिष्ट एक और प्रमाण है । नन्दीसूत्र नामक जैन आगम ग्रंथ पर हरिभद्रसूरि ने ३३३६ श्लोक प्रमाण संस्कृत टीका लिखी है। इस टीका में, (जिस तरह आवश्यकसूत्र की टीका में, आवश्यकचणि में से शतशः प्राकृत पाठ उद्ध त किये हैं वैसे) उन्होंने बहुत सी जगह, इसी सूत्र पर जिनदासगणि महत्तर की बनाई हुई चूणि नामक प्राकृत भाषामय पुरातन व्याख्या में से. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002118
Book TitleHaribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size4 MB
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