SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५६ ) कारणानां भिन्नेभ्यः स्वभावेभ्यः कार्यस्य तस्य तदविरोधात्, तदेकानेकस्वभावत्वात् तथोपलब्धेः, धर्मकीर्तिनाप्यभ्युपगमत्वात्, 'हेतु बिन्दो' भिन्नस्वभावेभ्यश्चक्षुरादिभ्यः सहकारिभ्य एककार्योत्पत्तौ न कारणभेदात्कार्यभेदः स्यात्' इत्याशङ्क्य 'न यथास्वं स्वभावभेदेन तद्विशेषोपयोगतस्तदुपयोगकार्यस्वभाव विशेष सङ्करात्' इत्यादेः ( ग्रंथात् ) स्वयमेवाभिधानात् । ( वही प्रति, पृ० ६६ ) आचार्य धर्मपाल और न्यायवादी धर्मकीर्ति इन दोनों में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध था और ये ई० स० की ७ वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में विद्य थे । चीनी प्रवासी ह्वेनसांग जब ई० स० ६३५ में नालन्दा के विद्यापीठ में पहुँचा था तब उसे मालूम हुआ कि उसके आने के कुछ ही समय पहले, आचार्य धर्मपाल जो विद्यापीठ के अध्यक्ष पद पर नियुक्त थे, अब निवृत्त हो गये । ह्वेनसांग के समय धर्मपाल के शिष्य आचार्य शीलभद्र अपने गुरु के स्थान पर प्रतिष्ठित थे । उन्हीं के पास से उसने विद्यालाभ किया । इस वृत्तान्त से यह ज्ञात होता है कि धर्मपाल ई० स० ६०० से ६३५ के बीच विद्यमान थे । स. महामति धर्म कीर्ति भी धर्मपाल के शिष्य थे इसलिये उनके बाद के २५ वर्ष धर्मकीर्ति के अस्तित्व के मानने चाहिए । अर्थात् ई. सं. ६३५ से ६५० तक वे विद्यमान होंगे । इस विचार की पुष्टि में दूसरा भी प्रमाण मिलता है । तिब्बतीय इतिहास लेखक तारानाथ ने लिखा है कि तिब्बत के राजा स्रोत्संगम्पो जो ई. ६१७ में जन्मा था और जिसने ६३९-९८ तक राज्य किया था, उसके समय में आचार्य धर्मकीर्ति तिब्बत में आये थे । इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि ह्वेनसांग जब नालंदा के विद्यापीठ में अभ्यास करता था तब धर्मकीर्ति बहुत छोटी उम्र के होंगे । इसलिये उसने अपने प्रवास - वृत्तांत में उनका नामोल्लेख नहीं किया । परन्तु ह्वेनसांग के बाद के चीनी यात्री इत्सिन - जिसने ई. सं. ६७१-६९५ तक भारत में भ्रमण किया था - अपने यात्रावर्णन में लिखा है कि दिङ्नागाचार्य के पीछे धर्मकीर्ति ने न्यायशास्त्र को खूब पल्लवित किया है । इससे जाना जाता है कि इत्सिन के समय में धर्मकीर्ति की प्रसिद्धि खूब हो चुकी थी । अत: इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002118
Book TitleHaribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy